आर्थिक विकास – आर्थिक विकास क्या है? | arthik vikas kya hai

आर्थिक विकास

बीसवीं शताब्दी के मध्य तक अर्थशास्त्र में आर्थिक विकास’ को प्रायः आर्थिक संवृद्धि के अर्थ में ही प्रयोग किया जाता था, परन्तु बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अर्थशास्त्रियों ने इसे भिन्न अर्थ प्रदान किया। नये अर्थों में आर्थिक विकास लोगों को कम समय में गरीबी एवं निष्क्रियता से मुक्ति दिलाने की सुविचारित प्रक्रिया है। दूसरे शब्दों में गरीबी, बेरोजगारी और असमानता जैसी समस्याओं से लोगों को निजात दिलाना ही ‘आर्थिक विकास’ है।

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इसका तात्पर्य यह है कि किसी देश में यदि गरीबी, बेरोजगारी और असमानता तीनों समस्याओं का स्तर ऊपर से नीचे हुआ है तो यह कहा जा सकता है उस देश में आर्थिक विकास हो रहा है।

आर्थिक विकास की अवधारणा

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जब आर्थिक विकास को आर्थिक संवृद्धि से अलग करके देखा जाने लगा तो दो दृष्टिकोण उभरे-परंपरागत दृष्टि कोण और नया दृष्टिकोण।

परंपरागत दृष्टिकोण में दो बातों पर जोर दिया गया :

  • (i) सकल घरेलू उत्पाद में 5 से 7 प्रतिशत प्रति वर्ष या उससे अधिक वृद्धि।
  • (ii) कृषि से उद्योग तथा तृतीयक क्षेत्र की ओर संरचनात्मक परिवर्तन।

जब व्यावहारिक तौर पर इस दृष्टिकोण से कोई लाभ नहीं हुआ तो अर्थशास्त्रियों ने बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक में आर्थिक विकास की परम्परागत विचारधारा को त्याग दिया और आठवें दशक में इसे पुनः परिभाषित कर आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य गरीबी, बेरोजगारी और असमानता का निवारण रखा गया। दूसरे शब्दों में, आर्थिक विकास का नया दृष्टिकोण लोगों के कल्याण से संबंधित है। नए दृष्टिकोण में भौतिक कल्याण में वृद्धि (खासतौर पर उन लोगों के भौतिक कल्याण में जिनकी आय बहुत कम है), गरीबी का निवारण, बेरोजगारी तथा आय असमानताओं का निवारण इत्यादि को भी शामिल किया गया।


इस सन्दर्भ में चार्ल्स पी. किन्डलबर्गर और ब्रूस हैरिक का कथन इस प्रकार है “आर्थिक विकास की परिभाषा प्रायः लोगों के भौतिक कल्याण में सुधार के रूप में की जाती है। जब किसी देश में खासकर नीची आय वाले लोगों के भौतिक कल्याण में बढ़ोती होती है, जनसाधारण को अशिक्षा, बीमारी और छोटी उम्र में मृत्यु के साथ-साथ गरीबी से छुटकारा मिलता है, कृषि लोगों का मुख्य व्यवसाय न रहकर औद्योगीकरण होता है जिससे उत्पादन के स्वरूप में और उत्पादन के लिए इस्तेमाल होने वाले कारकों के स्वरूप में परिवर्तन होता है, कार्यकारी जनसंख्या का अनुपात बढ़ता है और आर्थिक तथा दूसरे किस्म के निर्णयों में लोगों की भागीदारी बढ़ती है तो अर्थव्यवस्था का स्वरूप बदलता है और हम कहते हैं कि देश विशेष में आर्थिक विकास हुआ है।”

कहने का आशय यह है कि आर्थिक विकास की अवधारणा अधिक व्यापक है। इसमें अर्थव्यवस्था के कुछ ऐसे परिवर्तनों का समावेश किया जाता है जो अर्थव्यवस्था को प्रगतिशील बनाते हैं। भौतिक वस्तुओं और लोक-कल्याण की दृष्टि से ये परिवर्तन अर्थव्यवस्था को ऊपर उठाते हैं और उसे आधुनिक रूप प्रदान करते हैं। आर्थिक संवृद्धि में यह देखा जाता है कि देश के उत्पादन में (या अधिक सही रूप में, प्रतिव्यक्ति आय में) समय के साथ-साथ क्या वृद्धि हुई है। लेकिन आर्थिक विकास में प्रति व्यक्ति उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ यह भी देखा जाता है कि अर्थव्यवस्था के आर्थिक व सामाजिक ढांचे में क्या परिवर्तन हुए हैं।

इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि यदि संवृद्धि के साथ गरीबी, बेरोजगारी और असमानताओं में कमी नहीं होती तो सही अर्थों में इसे आर्थिक विकास नहीं कहा जाएगा। आर्थिक विकास कहलाने के लिए यह आवश्यक है कि संवृद्धि गरीबों के हित को बढ़ावा दे और न्याय संगत हो।

कुछ अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक विकास को इस प्रकार परिभाषित किया है “आर्थिक संवृद्धि के साथ-साथ संसाधनों का वितरण उनके पक्ष में हो जो अपेक्षाकृत गरीब हैं। इस अवधारणा में ऐसा विश्वास किया जाता है कि गरीबी, बेरोजगारी और असमानता में कमी होगी।”

प्रो. अमर्त्य सेन आर्थिक विकास को अधिकारिता तथा क्षमता के विस्तार के रूप में परिभाषित करते हैं उनके अनुसार आर्थिक विकास का आशय पोषण भूख से मुक्ति, आत्मसम्मान एवं ऐसी दशाएं उपलब्ध कराने से है जो व्यक्ति को अपने जीवन को बेहतर बनाने में सार्मथ्यवान बना सके तथा जिससे व्यक्ति में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक, अधिकारों के प्रति चेतना जागृत हो सके।

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि “आर्थिक विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सकल राष्ट्रीय उत्पादन में कृषि का हिस्सा लगातार गिरता जाता है जबकि उद्योगों, सेवाओं, व्यापार, बैंकिंग व निर्माण गतिविधियों का हिस्सा बढ़ता जाता है। इस प्रक्रिया के दौरान श्रम शक्ति के व्यावसायिक ढांचे में भी परिवर्तन होता है और दक्षता व उत्पादकता में वृद्धि होती है।

आर्थिक संवृद्धि और आर्थिक विकास में अंतर

आर्थिक संवृद्धि और आर्थिक विकास की अवधारणाएं कई बातों में एक दूसरे से अलग या भिन्न है :

  • संवृद्धि की अवधारणा का सम्बन्ध केवल उत्पादन में परिवर्तनों के साथ है। इसका एकमात्र केन्द्र बिन्दु उत्पादन मात्रा और उसकी वृद्धि दर है। इसके विपरीत विकास का क्षेत्र कही अधिक व्यापक है। इसमें संवृद्धि के अतिरिक्त लोगों के आर्थिक जीवन से संबंधित अनेक पहलुओं का समावेश होता है।
  • आर्थिक संवृद्धि का अर्थ देश के प्रतिव्यक्ति उत्पादन में एक निश्चित समयावधि में हुई वृद्धि से है जबकि आर्थिक विकास में प्रतिव्यक्ति उत्पादन के साथ यह देखा जाता है कि अर्थव्यवस्था के सामाजिक व आर्थिक ढांचे में क्या परिवर्तन हुए हैं।
  • जहां आर्थिक संवृद्धि का अर्थ उत्पादन में वृद्धि होता है, वहीं आर्थिक विकास का तात्पर्य उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ उत्पादन की तकनीकी और संरचना व्यवस्था में और वितरण प्रणाली में परिवर्तन होता है।
  • आर्थिक संवृद्धि का मापन वस्तुनिष्ठ (Objective) तरीके से संभव है लेकिन आर्थिक विकास का नहीं।

आर्थिक विकास के कारक

किसी भी देश के आर्थिक विकास के कुछ निर्धारक तत्व होते है, जिन्हें आर्थिक विकास का कारक कहा जाता है, ये कारक विभिन्न दिशाओं या ढंग से विकास में अपनी भूमिका निभाते हैं।

प्राकृतिक संसाधन

प्राकृतिक संसाधन आर्थिक विकास के मूलकारक माने जाते हैं। इसका आशय उन तमाम भौतिक और अभौतिक वस्तुओं से है जो मनुष्य को प्रकृति से उपलब्ध होता हैं जैसे कि भूमि, वन, नदी, खनिज पदार्थ, ऊर्जा के स्रोत, जलवायु वर्षा आदि। बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक तक बहुत से अर्थशास्त्री विभिन्न देशों के विकास अथवा अल्पविकास का विवेचन उनमें प्राकृतिक संसाधनों को सापेक्षित उपलब्धि के द्वारा करते थे। इस संदर्भ में आर्थर लुइस का मत उचित प्रतीत होता है जिसमें उसने कहा है कि किसी भी देश के विकास का स्तर तथा स्वरूप उस देश के संसाधनों द्वारा सीमित होता है। इसमें सन्देह नहीं है कि कई देशों के विकास और समृद्धि में उनके प्राकृतिक संसाधनों के भण्डार ने अत्यधिक योगदान दिया है। परन्तु यहां इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि मात्र प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धि विकास के लिए काफी नहीं है। लैटिन अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के बहुत से देश ऐसे हैं जिनमें पर्याप्त प्राकृतिक संसाधन तो हैं परन्तु जिनका विकास का स्तर अत्यन्त निराशा जनक है। दूसरी ओर स्विटजरलैण्ड के पास कोई प्राकृतिक संसाधन नहीं है और न ही भौतिक पर्यावरण अनुकूल है फिर भी उसने काफी उन्नति की है वहां की प्रति व्यक्ति आय तथा सम्पत्ति अमेरिका, ब्रिटेन जर्मनी जैसे देशों की तुलना में कम नहीं है।

आर्थिक कारक

किसी भी देश के आर्थिक विकास में आर्थिक कारकों की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पूंजी निर्माण, कृषि का विक्रय अधिशेष, विदेशी व्यापार की शर्ते और आर्थिक प्रणाली जैसे आर्थिक कारक आर्थिक विकास में उल्लेखनीय भूमिका निभाते हैं।

  • पूंजी निर्माण : पूंजी का आशय उन सब मनुष्यकृत साधनों से है जो उत्पादन में सहायक होते हैं जैसे कि मशीनें, कल-पूर्जे, कारखानों की इमारते आदि। इन सब का योग पूंजी स्टॉक कहलाता है। वर्तमान पूंजी स्टॉक में जो वृद्धि होती है, उसे ‘पूंजी निर्माण’ कहा जाता है। किसी देश का आर्थिक विकास बहुत बड़ी सीमा तक पूंजी-निर्माण पर निर्भर करता है। अर्थव्यवस्था समाजवादी हो अथवा पूंजीवादी आर्थिक विकास की गति तेज रखने के लिए पूंजी निर्माण की दर ऊंची रखना अनिवार्य होती है।
  • कृषि का विक्रय अधिशेष : देश के आर्थिक विकास के लिए निसंदेह कृषि उत्पादन तथा उत्पादकता में वृद्धि महत्वपूर्ण है परंतु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है, कृषि के विक्रय अधिशेष में वृद्धि। विक्रय अधिशेष कृषि उत्पादन का वह हिस्सा है जो ग्रामीण जनसंख्या की निर्वाह की आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद बच जाता है। इस विक्रय अधिशेष पर ही शहरी क्षेत्रों के लोगों के खाद्यान्न सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। जब कोई अर्थव्यवस्था विकास पथ पर आगे बढ़ती है तो उसके साथ शहरी जनसंख्या का अनुपात बढ़ता है जिससे खाद्यान्नों की मांग बढ़ती है। इस मांग को पूरा करना अनिवार्य होती है अन्यथा शहरी क्षेत्रों में खाद्यान्नों की कमी होने से विकास की प्रक्रिया बाधित होती है।
  • विदेशी व्यापार की शर्ते : अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार उन सब देशों के लिए लाभदायक है जो व्यापार में हिस्सा लेते हैं। इस सन्दर्भ में यह कहा जाता रहा है कि अल्पविकसित देशों को कृषि पदार्थो तथा कच्चे माल का उत्पादन व निर्यात करना चाहिए क्योंकि उसी में उनका तुलनात्मक लागत लाभ है। इसके विपरीत विकसित देशों को निर्मित वस्तुओं का उत्पादन व निर्यात करना चाहिए क्योंकि उनका तुलनात्मक लागत लाभ इसी में है। लेकिन कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में विशिष्टीकरण का यह स्वरूप अल्पविकसित देशों के लिए हानिप्रद सिद्ध हुआ है। इसका कारण यह है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में व्यापारिक शर्ते निर्मित माल का निर्यात करने वाले देशों के अनुकूल और कृषि पदार्थो और कच्चे माल का निर्यात करने वाले देशों के प्रतिकूल रही है। यही कारण है कि राउल प्रैबिश (Raul Prabisch) तथा कुछ अन्य अर्थशास्त्रियों ने कहा है कि मुक्त व्यापार विकसित और अल्पविकसित देशों के लिए समान रूप से लाभदायी नहीं है। इसलिए अल्पविकसित देशों के सामने एकमात्र विकल्प यही है कि वे तेजी से औद्योगीकरण करें तथा अपने निर्यातों में कृषि पदार्थों और कच्चे माल का हिस्सा घटाकर औद्योगिक वस्तुओं का निर्यात बढ़ाए।

अनार्थिक कारक

आर्थिक विकास की प्रक्रिया में अनार्थिक कारक भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित तत्वों को शामिल किया जाता है।

  • मानव संसाधन : मानव संसाधन अथवा श्रम आर्थिक विकास का मूलभूत एवं सक्रिय साधन है। जनसंख्या श्रम का स्रोत है। यदि किसी देश में श्रम शक्ति कुशल होने के साथ-साथ कार्य भी है तो उसका उत्पादन सामर्थ्य निश्चय ही अधिक होगा। यह सही है कि जनंसख्या श्रमिकों के आकार में वृद्धि में सहायक सिद्ध होती है। लेकिन एक सीमा तक ही, क्योंकि श्रमिकों की संख्या से अधिक योग्यता-क्षमता का महत्व होता है। दुर्बल, अशिक्षित, अकुशल और रूढ़ियों में फंसे हुए व्यक्तियों की उत्पादकता कम होती है। वर्तमान युग में जबकि वैज्ञानिक प्रगति के फलस्वरूप भारी मशीनों और जटिल तकनीक के सहारे तरह-तरह की वस्तुओं का उत्पादन होने लगा है तथा आर्थिक जीवन ने बहुत जटिल रूप धारण कर लिया है। प्रशिक्षित, योग्य एवं सतर्क श्रमिकों का महत्व विशेष रूप से बहुत बढ़ गया है।
  • राजनैतिक स्वतंत्रता : किसी भी देश का आर्थिक विकास उस देश की राजनैतिक स्वतंत्रता पर निर्भर करता है। हम सभी जानते हैं कि विश्व में विकास और अल्पविकास की प्रक्रियाएं एक साथ चली है। औपनिवेशिक काल में भारत, पाकिस्तान, बांग्ला देश, श्रीलंका, कीनिया आदि देशों का अल्पविकास इंग्लैण्ड के विकास का परिणाम है। इंग्लैंण्ड ने इन उपनिवेशां का जिस प्रकार शोषण किया उससे इंग्लैण्ड का तो अप्रत्याशित विकास हुआ, परन्तु ये सभी देश आर्थिक रूप से पिछड़ गए। इसी प्रकार फ्रांस का विकास अल्जीरियां तथा हिन्दचीन के अल्पविकास तथा ब्राजील और चिली का अल्पविकास अमेरिकी प्रभाव का परिणाम है। औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत किसी देश का आर्थिक विकास हुआ हो, ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता। अतः आर्थिक विकास के लिए राजनैतिक स्वतंत्रता का विशेष महत्व है।
  • न्यायपूर्ण सामाजिक संगठन : विकास की प्रक्रिया उसी समय तेज हो सकती है जब देश के विकास कार्यक्रमों में सभी व्यक्तियों की भागीदारी हो और यह उसी समय होगा जब सामाजिक संगठन न्यायपूर्ण हो। भारत में उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों से औद्योगिक क्षेत्र में एकाधिकारी तत्वों के हाथ में आय और संपत्ति का केन्द्रीकरण बढ़ा है तथा प्रवृत्तियों के परिणामस्वरूप आर्थिक असमानताएं बढ़ी है, जिससे प्रमाणित होता है कि भारत में सामाजिक ढांचा न्यायपूर्ण नहीं है।
  • वैज्ञानिक तथा तकनीकी प्रगति : अर्थव्यवस्था के आधार को मजबूत बनाकर उसके विकास में तेजी लाने का पूंजी-निर्माण निसन्देह एक मूलभूत कारक है लेकिन इस दृष्टि से वैज्ञानिक तथा तकनीकी प्रगति कम महत्वपूर्ण नहीं है। वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान का विकास दर पर सीधा प्रभाव पड़ता है। राबर्ट एम. सोलोव ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि अमेरिका में राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि में सर्वाधिक योगदान तकनीकी प्रगति का है।
  • भ्रष्टाचार : अल्पविकसित देशों में व्याप्त भ्रष्टाचार का इन देशों के आर्थिक विकास पर व्यापक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। हालाँकि पश्चिमी देशों में भ्रष्टाचार को आर्थिक विकास में अवरोधक के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है।
  • विकास के लिए आकांक्षा : किसी भी देश में आर्थिक विकास की प्रक्रिया की गति उस देश के लोगों की विकास के प्रति आकांक्षा पर निर्भर करती है। इसे मशीनी प्रक्रिया नहीं समझा जाना चाहिए। मानवीय तत्वों की उपेक्षा कर विकास के किसी भी कार्यक्रम को सफल नहीं बनाया जा सकता।

आर्थिक विकास की रणनीति

किसी भी अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाने तथा आगे बढ़ाने के लिए जिस प्रकार या ढंग से विकास के कारकों को मिलाया और इस्तेमाल किया जाता है, उसे ‘आर्थिक विकास की रणनीति’ कहते हैं। स्पष्टतः कोई एक ऐसी रणनीति नहीं है जो सभी अल्पविकसित देशों के लिए समान रूप से उपयोगी सिद्ध हो। प्रत्येक देश को अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुसार रणनीति का चयन करना होता है। अल्पविकसित देशों में अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए प्रायः जिन तीन रणनीतियों को अपनाया जाता है, उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं।

  1. संतुलित संवृद्धि कर रणनीति : इस रणनीति के अंतर्गत अल्पविकसित देशों के विकास के लिए अनेक और विविध कार्यकलापों में एक साथ निवेश किया जाना आवश्यक होता है। इससे विभिन्न उद्योग एक-दूसरे के सहायक या अनुपूरक बन जाते हैं और उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं के लिए मांग पैदा होती है। बाजार के विस्तार के फलस्वरूप निवेश को प्रोत्साहन मिलेगा। इस प्रकार अल्पविकसित देश के लिए विकास के पक्ष पर आगे बढ़ना संभव होता है।
  2. असंतुलित संवृद्धि की रणनीति : इस रणनीति में विपरीत दृष्टिकोण अपनाया जाता है। कई दृष्टियों से यह संतुलित संवृद्धि की रणनीति से श्रेष्ठ मानी जाती है। इस रणनीति के तहत संसाधनों को अनेक और विभिन्न क्षेत्रों में थोड़ा-थोड़ा मात्रा में उनका वितरण करने के बजाय कुछ चुने हुए क्षेत्रों में ही लगाया जाता है। इससे अर्थव्यवस्था में अंसतुलन की स्थिति पैदा होगी। यह असंतुलन कुछ वस्तुओं या सेवाओं की अधिकता या कमी का रूप धारण करेगा जिसे दूर करने के पुनः प्रयास होगा। यह क्रम चलता रहेगा और अर्थयवस्था गतिशील हो जाएगी इस रणनीति में सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है।
  3. भारी उद्योग उन्मुख रणनीति : भारी उद्योग उन्मुख रणनीति का उल्लेख इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इस रणनीति का भारत में सहारा लिया गया है। इस रणनीति में भारी उद्योगों की सहायता से अल्पविकसित देश का तेजी से औद्योगीकरण किया जाता है। इससे देश की अर्थव्यवस्था के आधार को मजबूत बनाने, उसके स्तर को ऊपर उठाने तथा उसके विभिन्न क्षेत्रों के बीच संतुलन स्थापित करने में बड़ी मदद मिलती है। उत्पादन क्षमता में वृद्धि होने से उत्पादन-मात्रा में बढ़ोतरी होती है और साथ ही उत्पादन विविधातापूर्ण बन जाता है। अर्थात् अधिक मात्रा में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का उत्पाद संभव हो जाता है। इस रणनीति में मूलभूत व भारी उद्योगों जैसे कि लोहा-इस्पात उद्योग, मशीन,-इंजीनियरी उद्योग, रासायनिक उद्योग आदि को औद्योगीकरणका आधार बनाया जताा है।

उपरोक्त रणनीतियों को अपनाने से अर्थव्यवस्था के समक्ष विभिन्न प्रकार की कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती है जिनके निवारण के लिए विविध प्रकार के प्रयास अनिवार्य होते है, जो निम्न हैं-

  • पूंजी निर्माण को बढ़ाना
  • मानव-पूंजी में सुधार
  • उद्यम-योग्यता में वृद्धि
  • प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर उपयोग
  • तकनीक को उन्नतशील बनाना
  • युक्तिमूलक बाजार की स्थापना
  • सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका

आर्थिक विकास के मापक या संकेतक

आर्थिक विकास एक बहुआयामी प्रक्रिया है इसीलिए इसकी मात्रा का निर्धारण संभव नहीं है। फिर भी इसके मापन के संबंध में अनेक प्रयास किये गये हैं विकास के स्तर को मापने के लिए निम्नलिखित चार संकेतकों-प्रतिव्यक्ति आय, जीवन की भौतिक गुणवता का सूचकांक, जीवन की गुणवत्ता का सूचकांक और मानव विकास सूचकांक को अपनाया जाता है।

1. प्रतिव्यक्ति आय : किसी देश के प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि को आर्थिक विकास का श्रेष्ठ संकेतक माना गया है। यदि किसी देश की वास्तविक प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के साथ-साथ जीवन की गुणवत्ता में सुधार हो, निर्धनता एवं भुखमरी में कमी हो अथवा साक्षरता तथा जीवन की प्रत्याशा में वृद्धि हो तो ऐसी स्थिति में प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि को आर्थिक विकास का सूचक माना जा सकता है। परंतु सामान्यतः प्रतिव्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि गुणात्मक पहलू पर प्रकाश नहीं डालती, अतः इसे आर्थिक विकास के मापक के रूप में प्रयोग नहीं किया जाता है।

2. जीवन की भौतिक गुणवत्ता के सूचक : विकास के इस संकेतक में जीवन की भौतिक गुणवत्ता में सुधार को आर्थिक विकास का संकेतक माना गया है। इसके अंतर्गत जीवन के तीन पहलुओं को प्रमुखता दी जाती है।

  • जीवन-प्रत्याशा
  • शिशु मृत्यु दर
  • साक्षरता

इन तीनों को मिलाकर जीवन सूचकांक तैयार किया जाता है। इस सूचकांक के आधार पर देश में विकास होने या न होने का पता लगाया जाता है।

3. जीवन की गुणवत्ता के सूचक : विकास के इस संकेतक में अल्पविकसित देशों के बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की बात को केन्द्र-बिन्दु बनाया गया है। इसमें जीवन के कुछ विशेष पहलुओं को ही नहीं, बल्कि जीवन की सभी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति को शामिल किया गया है, जैसे भोजन, कपड़ा, मकान, पेयजल, सफाई, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि। इस संकेतक में आय-वृद्धि के साथ-साथ गरीबी, बेरोजगारी तथा वितरण-विषमताओं को दूर करने के उद्देश्यों को यथोचित स्थान दिया गया है।

4. मानव विकास सूचकांक : हाल के वर्षों में विकास अर्थशास्त्रियों का ध्यान आर्थिक संवृद्धि से हटकर मानव विकास पर केन्द्रित हुआ है। अब अर्थशास्त्री मानने लगे हैं कि विकास का वास्तविक उद्देश्य जनता के विकल्पों का विस्तार करना है। विकास का यह नवीनतम संकेतक है जिसे विकास कार्यक्रम के अंतर्गत संयुक्त राष्ट्र द्वारा तैयार किया गया है। इसमें जीवन के तीन मूल तत्वों को सम्मिलित किया गया है प्रति व्यक्ति आय, शैक्षिक उपलब्धियां तथा जीवन प्रत्याशा। संयुक्त राष्ट्र संघ के विकास कार्यक्रम (United Nations Development Programme) द्वारा सर्वप्रथम 1990 में मानव विकास सूचकांक प्रकाशित किया गया था इसे महबूत उल हक के निर्देशन में तैयार किया गया था। अन्य संकेतकों या सूचकांकों से भिन्न, मानव-विकास संकेतक विभिन्न देशों का विकास की दृष्टि से, परस्पर क्रम निर्धारित करता है।

इसके अंतर्गत विकास के स्तर को मापने के लिए जनसामान्य के तीन विकल्पों पर विचार किया जाता है।

एक लंबा और स्वस्थ जीवन व्यतीत करना (जन्म के समय जीवन संभावना द्वारा)

ज्ञान की उपलब्धि (शिक्षा के स्तर द्वारा)

एक अच्छा जीवन स्तर (प्रति व्यक्ति आय द्वारा)

आर्थिक विकास के मापन

बहुआयामी निर्धनता सूचकांक

इसका विकास वर्ष 2010 में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम एवं ऑक्सफोर्ड निर्धनता एवं मानव विकास की पहल पर हुआ यह मापन के लिए कई मानकों का प्रयोग करता है। जैसे प्राथमिक शिक्षा, कुपोषण, शिशु मृत्यु दर, बिजली की उपलब्धता, स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता आदि।

यह सूचकांक बताता है। कि भारत के 8 राज्यों के ही निर्धनों की कुल जनसंख्या अफ्रीका के 26 निर्धनतम देशों में निर्धनो कि जनसंख्या से अधिक है। उदाहरण के लिए यह राज्य है- बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राज्स्थान, उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल।

इस सूचकांक के निम्न तीन आयाम और 10 संकेतक है। इन सभी संकेतको को समान महत्व प्राप्त है।

आयामसंकेतक
स्वास्थ्यशिशु मृत्यु दरपोषण
शिक्षाविद्यालय अवधिविद्यार्थी नामांकन
जीवन-स्तरभोजन पकाने के लिए ऊर्जापानीविद्युतशौचालयआवाससंपत्ति

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की मानव विका रिपोर्ट में निर्धनता की स्थिति के आलकन हेतु ह्यूमन पॉवर्टी इंडेक्स (HPI) का उपयोग वर्ष 1997 से ही किया जाता रहा हैं, किंतु अब उपरोक्त नया मल्टीडायमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स वर्ष 2010 की मानव विकास रिपोर्ट में पहली बार शामिल किया गया है। HDR 2011 के अनुसार, भारत में 53.7 प्रतिशत जनसंख्या मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं, जबकि 16.4 प्रतिशत एकाधिक मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। भारत की बहुआयामी गरीबी सूचकांक (MPI) 0.283 हैं।

मानव विकास सूचकांक (HDI)

वर्ष 1990 में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) से जुड़े अर्थशास्त्री महबूब-उल-हक, उनके सहयोगी अमर्त्य सेन तथा सिंगुर हंस एंव अन्य लोगों द्वारा मानव विकास सूचकांक (HDI) विकसित किया गया।

यह सूचकांक तीन चरों के आधार पर विकसित किया गया।

  1. जन्म के समय जीवन प्रत्याशा
  2. ज्ञान या शैक्षणिक उपलब्धि
  3. प्रतिव्यक्ति आय।

जीवन प्रत्याशा

प्रतिवर्ष UNDP द्वारा मानव विकास सूचकांक के आधार पर मानव विकास रिपोर्ट प्रकाशित की जाती है। इसमें जन्म के समय जीवन प्रत्याशा को स्वास्थ्य का सूचक माना जाता हैं।

शैक्षणिक उपलब्धि

ज्ञान या उपलब्धि के मापन हेतु वयस्क साक्षरता तथा संयुक्त नामांकन अनुपात (प्राथमिक, माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा में नामांकन) का उपयोग किया जाता है। बालिग साक्षरता को दो-तिहाई वजन तथा संयुक्त नामांकन अनुपात को एक-तिहाई वजन दिया जाता हैं।

प्रति व्यक्ति आय

इसे मापने हेतु प्रति व्यक्ति सकल देशीय उत्पाद को आधार बनाया गया हैं, जिसमें जीवन-स्तर प्रभावित होता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मानव विकास सूचकांक तीन सूचकांको-जीवन प्रत्याशा सूचकांक, शिक्षा सूचकांक तीन सूचकांको-जीवन प्रत्याशा सूचकांक, शिक्षा सूचकांक तथा सकल राष्ट्रीय आय का औसत सूचकांक हैं।

इनमें से प्रत्येक को विभिन्न पैमाने पर मापते हुए 0-1 के पैमाने पर मानव विकास सूचकांक का निर्माण किया जाता है। इसका अधिकतम मूल्य 1 के बराबर होता है। जिस देश का मान 1 से अधिक समीप होता हैं, उसे उतना ऊँचा मानव विकास वाला देश माना जाता हैं।

मानव विकास सूचकांक के आधार पर सदस्य देशों को चार भागों में विभाजित किया गया हैं-

  • अत्यधिक उच्च मानव विकास सूचकांक वाले देश-जिनका सूचकांक 0.797 से अधिक हैं।
  • उच्च मानव विकास सूचकांक वाले देश-जिनका सूचकांक 0.711 से 0.796 के मध्य हैं।
  • मध्यम मानव विका सूचकांक वाले देश-जिनका सूचकांक 0.536 से 0.710 के मध्य हैं।
  • निम्न मानव विकास सूचकांक वाले देश-जिसका सूचकांक 0.0 से 0.535 के मध्य हैं।

मानव विकास रिपोर्ट 2016

188 देशों की सूची में भारत का स्थान 131 वां हैं,

विश्व में सर्वाधिक अच्छी स्थिति है-

  • नार्वे
  • आस्ट्रिया
  • स्विटजरलैण्ड

नोट :-

ज्ञातव्य है कि HDR-2010 से HDR रिपोर्टों में तीन नए सूचकांक शामिल किये जाने लगे हैं।

यथा –

  1. असमानता प्रभाव (Impact of Inequality)
  2. लिंग असमानता (Gender Disparties)
  3. बहु आयामी गरीबी सूचकांक (Multidimensional Poverty Index)

इसके अतिरिक्त वर्ष 2010 से साक्षरता और आय पर इनके संकतकों को नया रूप दिया गया है जिसके तहत सकल नामांकन दर एवं वयस्क साक्षारता दर को क्रमशः स्कूलावधि के अनुमानित वर्ष (Expected years of schooling) एवं स्कूलावधि के औसत वर्ष (Mean years of schooling) से प्रतिस्थापित किया गया है और सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का स्थान सकल राष्ट्रीय आय (GNI) ने लिया है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय आय के प्रवाहो को भी शामिल किया जाता है।

यूएनडीपी ने वर्ष 2010 से मानव विकास सूचकांक तैयार करने के लिए जिस बहुआयामी निर्धनता सूचकांक का इस्तेमाल किया है, उनके अंतर्गत एक ही परिवार के सदस्यों में पाए जाने वाले शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर से संबंधित अभावों पर ध्यान दिया गया हैं। अर्थात्-भारत में गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों में शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन-दशाओं से संबंधित अभाव पाए जाते हैं।

शीर्ष 7 जीवन प्रत्याशा वाले देश
देशLEI वर्ष में
जापान83.6
आस्ट्रेलिया82.0
फ्रांस81.7
नार्वे81.3
कनाडा81.1
न्यूजीलैण्ड80.8
जर्मनी69.8
निम्न 5 जीवन प्रत्याशा वाले देश
देशLEI वर्ष में
सियरालिओन48.1
कांगो48.7
अफगानिस्तान49.1
बुरुंडी50.9
नाइजर55.1

भारत मानव विकास रिपोर्ट : 2011

21 अक्टूबर, 2011 को लगभग एक दशक के बाद ‘भानत मानव विकास रिपोर्ट’ (India Human Development Report IHDR): 2011 को केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया द्वारा जारी किया गया। रिपोर्ट का शीर्षक थीम था- ‘सामाजिक समावेशन की ओर’ (Towards Social Inclusion)

इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड मैनपावर रिसर्च (Indtitute of Appliced Manpower Research-IAMR) जो कि योजना आयोग का सहयोगी संगठन है; के महानिदेशक संतोष मेहरोत्रा द्वारा तैयार इस IHDR-2011 में भारत के विभिन्न राज्यों में मानव विकास की स्थिति का आकलन वर्ष 2007-08 के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है और उसकी तुलना मानव विकास सूचकांक (HDI) 1999-2000 से की गई है। सूचकांक में तीन संकेतकों- यथा- उपभोग व्यय (आय गणना हेतु), शिक्षा एवं स्वास्थ्य का समुच्चय प्रस्तुत किया गया है।

शीर्ष 4 IHDI वाले राज्य
राज्यHDI
केरल0.790
दिल्ली0.750
हिमाचल प्रदेश0.652
गोवा0.617
निम्नतर 4 IHDI वाले राज्य
राज्यHDI
छत्तीसगढ़0.358
ओडिशा0.362
बिहार0.367
मध्य प्रदेश0.375

औद्योगिकरण की होड़ में आज सभी देश विकास को तरजीह दे रहे हैं, इन देशों को इस बात की अहमियत नहीं है कि विकास की दिशा ठीक है या नहीं, विकास की इस चकाचौंध में घुसने से पहले इन देशों को (खासकर विकासशील देशों को) टिकाऊ विकास या सतत् विकास की अवधारणा को ध्यान में रखना चाहिए।

सतत विकास शब्द से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि विकास ऐसा होना चाहिए जो निरंतर चलता रहे अर्थात् विकास एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें उपलब्ध संसाधनों का इस तरह से उपयोग किया जाता हैं।

विश्व स्तर पर सतत् विकास की रूपरेखा को अपनाने हेतु कुछ आवश्यक पैमाने तय किए गए हैं, यदि इन मानकों को ध्यान में रखा जाए, तो सभी देश सतत् विकास की अवधारणा को साकार कर सकते हैं, सतत् विकास के लिए दुनिया के सभी देशों को एकजुट होना होगा और निम्नलिखित तथ्यों की ओर ध्यान देना होगा।

  1. जनसंख्या स्थिरीकरण (Population Stabilisation) बनाए रखना।
  2. नवीन प्रौद्योगिकी अथवा तकनीकी स्थानांतरण (New Technologies or Technology Transfer)
  3. प्राकृतिक संसाधनों का उपर्युक्त प्रयोग (Efficient use of Natural Resources)
  4. अपशिष्टों में कमी तथा प्रदूषण नियंत्रण (waste Reduction and Pollution Prevention)
  5. समन्वित पर्यावरण तंत्र प्रबंधन (Integrated Enviroment system Management)
  6. बाजार अर्थव्यवस्था का शुद्धिकरण (Refining Market Economy)
  7. शिक्षा का विकास (Development of Education)
  8. आम लोगों की प्रवृत्ति में परिवर्तन (Change of Public Attitude)
  9. सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन (Social & Cultural Changes)

यदि उपर्युक्त बिंदुओं पर ध्यान दिया जाए, तो सतत् विकास की अवधारणा को मूर्त रूप दिया जा सकता हैं।

भारत से सतत् विकास के लिए सरकार अनेक कार्यों को कर रही है, साथ-ही-साथ इन कार्यक्रमों को जन सहभागित की आवश्यकता है, ताकि ये इन कार्यक्रमों का क्रियान्वयन सुचारू ढंग से कर सकें:-

  1. वनारोपण व सामाजिक वानिकी
  2. मृदा संरक्षण व परती भूमि विकास कार्यक्रम
  3. कृषि जलवायु प्रादेशीकरण
  4. वाटर शेड प्रबंधन
  5. फसल चक्र के नियम का पालन
  6. शुष्क कृषि विकास

इसे अतिरिक्त जीवमंडल विकास कार्यक्रम, राष्ट्रीय अभ्यारण्य, जलग्रस्त भूमि संरक्षण, मैंग्रोव संरक्षण, तटीय पारिस्थिातिकी एवं मलिन बस्तियों में सुधार आदि, प्रदूषण को रोकने के लिए विभिन्न प्रकार के कानूनों को भी शाश्वत दिशा में भारत में हो रहे प्रयासों के अंतर्गत शामिल किया जा सकता हैं।

ग्रीन जी. एन. पी. (Green G.N.P.)

एक दी हुई समयावधि में प्रति व्यक्ति उत्पादन की वह अधिकतम संभावी मात्रा है, जोकि देश की प्राकृतिक संपदा को स्थिर बनाए रखते हुए प्राप्त की जा सकती हैं, 1995 ई. में ग्रीन जी. एन. पी. (Green GN.P) प्रारंभ किया गया था एवं इसमें अभी तक 192 देशों को शामिल किया गया हैं. ऑस्ट्रेलिया व इथियोपिया का ग्रीन जी. एन. पी. की सूची में क्रमशः प्रथम व अंतिम स्थान है, जबकि भारत का स्थान 173 वां हैं।

ग्रीन जी डी पी (Green GDP)

सकल पर्यावरण उत्पाद (GEP) का तात्यर्य हैं, पर्यावरणीय परिणामों के साथ आर्थिक विकास के लिए किसी देश ने अपनी जैव-विवधता को कितना नुकसान पहुँचाया अथवा उससे पर्यावरण पर कितना प्रभाव पड़ा इसे ग्रीन जी.डी.पी भी कहा जाता हैं। ग्रीन जी. डी. पी गणना सकल घरेलू उत्पाद में से ग्रीन शुद्ध प्राकृतिक पूंजी की खपत के (जिसके संसाधनों में आई कभी पर्यावरण क्षरण एवं पर्यावरणीय संरक्षात्मक पहल शामिल होता है।) मौद्रिक मूल्य को घटाकर की जाती है। वर्ष 1972 में सर्वप्रथम विलियम नॉर्डस एवं जेमा टॉविन ने परिवारों के वास्तविक वार्षिक उपभाग को मापने का मॉडल पेश किया, जिसे आर्थिक कल्याण पैमाना कहा गया।

सहस्त्रादि विकास लक्ष्य

सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों को संयुक्त राष्ट्र के सहस्त्राब्दि सम्मेलन, 2000 में स्थापित किया गया। इसके अंतर्गत संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों एवं 28 अंतर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा वर्ष 2015 तक 8 लक्ष्यों को प्राप्त करने पर सहमति व्यक्त की गई।

  1. गरीबी एवं भूख की समाप्ति
  2. प्राथमिक शिक्षा
  3. लैगिक समानता एवं महिला सशाक्तिकरण
  4. शिशु मृत्यु दर
  5. HIV एड्स, मलेरिया व अन्य बीमारियों की रोकथाम
  6. पर्यावरण संरक्षण
  7. मातृत्व स्वास्थ्य
  8. विकास के लिए वैश्विक भागीदारी का निर्माण।

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