क्षेत्रवाद क्या है
क्षेत्रवाद अथवा प्रादेशिकता की समस्या भारत के राष्ट्र-निर्माण में एक अवरोधक तत्त्व है। प्रदेशों को विभिन्न आधारों जैसे भूगोल, आर्थिक विकास, भाषाई एकीकरण, जाति या जनजाति इत्यादि द्वारा परिभाषित किया जा सकता है। विभिन्न राज्यों में कभी-कभी भाषा के आधार पर झगड़े भी होते हैं। ऐसा माना जाता है कि राज्यों के भाषायी पुनर्गठन ने भारत का अहित ही किया हो यह भी वास्तविकता के विपरीत है।
भाषा पर आधारित राज्यों ने भारतीय एकता को कोई ठेस नहीं पहुँचाई बल्कि उसे और मजबूत करने में सहयोग दिया। वस्तुतः भारत में भाषायी समुदायों की भावनाओं की उपेक्षा शायद उतनी नहीं की गई है जितनी कि पड़ोसी देश श्रीलंका और पाकिस्तान में की गई है।
कई बार अनेक आधार परस्पर जुड़े होते हैं। क्षेत्रवाद अपने क्षेत्र अथवा राज्य के प्रति निष्ठा की संकीर्ण भावना है। कई बार ऐसा होता है कि किसी विशेष क्षेत्र या प्रदेश के लोग यह सोचते हैं कि उनके सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक या संवैधानिक अधिकारों की उपेक्षा की जा रही है। इससे लोग अपने क्षेत्र या प्रदेश के विकास के लिए उन विशेषाधिकारों एवं अवसरों की माँग करने लगते हैं जोकि उन्हें सम्पूर्ण समाज के सन्दर्भ में करने चाहिए।
क्षेत्रीय हितों द्वारा प्रभावित व्यक्ति अन्य प्रदेशों व सम्पूर्ण राष्ट्र के हितों की ओर कोई ध्यान नहीं देते हैं। इससे भी राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया को नुकसान पहुँचता है। कुछ विद्वान् इसे राष्ट्रीयता में ही अन्तर्भूत प्रक्रिया बताते हैं। अतः इस लेख में क्षेत्रवाद की समस्या से निपटने हेतु विस्तृत वर्णन प्रस्तुत है।
प्रस्तावना
सामुदायिक पहचान जन्म तथा सम्बन्धित होने के भाव पर आधारित होती है। यह हमें किसी अर्जित योग्यता या उपलब्धि के आधार पर प्राप्त नहीं होती। जिस समुदाय में हमने जन्म लिया है उसकी सदस्यता हमें जन्म से ही मिल जाती है तथा वही हमारी पहचान बन जाता है। परिवारों, धार्मिक अथवा क्षेत्रीय समुदायों की सदस्यता के लिए न कोई योग्यता एवं कुशलता की आवश्यकता होती है और न ही किसी प्रकार की परीक्षा पास करनी पड़ती है। प्रत्येक व्यक्ति अपने समुदाय से सम्बन्धित होकर अत्यन्त सुरक्षित एवं सन्तुष्ट महसूस करता है। वह भावात्मक रूप से अपने समुदाय से जुड़ा हुआ होता है। समुदाय के परस्परव्यापी दायरे ही हमारी दुनिया को सार्थकता प्रदान करते हैं और हमें एक पहचान देते हैं कि हम कौन हैं। यह पहचान एक प्रकार से प्रदत्त होती है तथा इतनी पक्की होती है कि उसे हिलाया नहीं जा सकता। धर्म तथा क्षेत्र के आधार पर पहचान इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
क्षेत्रवाद का अर्थ
क्षेत्रवाद का अर्थ अपने क्षेत्र के प्रति लगाव की उस भावना से है जो व्यक्ति को अन्य क्षेत्रों की तुलना में अपने क्षेत्र को प्राथमिकता देने तथा अन्यों की उपेक्षा करने हेतु प्रेरित करती है। भारत जैसे देश में क्षेत्रवाद का आधार विभिन्न भाषाएँ, संस्कृतियाँ, जनजातियाँ तथा धर्मों की विविधता है। इन भिन्नताओं को विशेष क्षेत्रों में पहचान चिह्नकों के भौगोलिक संकेन्द्रण के कारण भी प्रोत्साहन मिलता है। इसलिए यदि किसी क्षेत्र के व्यक्ति यह सोचते हैं कि अन्य क्षेत्रों की तुलना में उन्हें किसी चीज या सुविधा से वंचित रखा जा रहा है तो यह भावना अग्नि में घी का काम करती है। धर्म की तुलना में भाषा ने क्षेत्रीय तथा जनजातीय पहचान के साथ मिलकर भारत में नृजातीय राष्ट्रीय पहचान बनाने के लिए एक अत्यन्त सशक्त साधन का काम किया है।
क्षेत्रवाद की परिभाषा
क्षेत्रवाद की परिभाषा देना इतना सरल नहीं है क्योंकि प्रदेश को निर्धारित करने का कोई एक सामान्य आधार नहीं है। साथ ही, कई आधार आपस में जुड़े हुए होते हैं जिससे समस्या और भी जटिल हो जाती है। उदाहरणार्थ, केवल भाषाएँ प्रदेशों को परिभाषित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। कई बार ऐसा होता है कि किसी विशेष क्षेत्र में रहने वाले व्यक्ति अनुभव करते हैं कि उनके संवैधानिक उद्देश्यों (जैसे आर्थिक तथा सांस्कृतिक इत्यादि) की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है अथवा पूरे नहीं हो रहे हैं।
क्षेत्रवाद के बारे में दो दृष्टिकोण हमारे सम्मुख रखे गए हैं- प्रथम, अपने प्रदेश के प्रति भक्ति देश में बढ़ती हुई राष्ट्रीयता का ही परिणाम है।
विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले लोग आर्थिक तथा सांस्कृतिक विकास के लिए वही विशेषाधिकारों एवं अवसरों की माँग करते हैं जिनकी पहले पूरे देश में माँग की जाती थी। द्वितीय, इसके बारे में एक अन्य दृष्टिकोण यह है कि क्षेत्रीय भावनाएँ राष्ट्रीय एकता में रुकावट है क्योंकि क्षेत्रीय उद्देश्यों की सर्वोच्चता के कारण राष्ट्रीय उद्देश्य पिछड़ जाते हैं। क्षेत्रीय भावना से ग्रसित व्यक्ति केवल अपने प्रदेश के उद्देश्यों की पूर्ति चाहता है तथा पड़ोसी प्रदेशों अथवा पूरे देश के उद्देश्यों को सामने नहीं रखता।
भारतीय सरकार का प्रमुख उद्देश्य सांस्कृतिक, धार्मिक तथा प्रजातीय अनेकताएँ एवं संघर्ष होते हुए भी एकता की भावना का विकास करना है। आर्थिक असमानताओं को जब राजनीतिक उद्देश्य के लिए शोषित किया जाता है तो क्षेत्रवाद की समस्या उत्पन्न हो जाती है तथा क्षेत्रीय संगठन जन्म लेने लगते हैं। आर० सी० पाण्डे के अनुसार, हिन्दी बोलने वाले तथा न बोलने वाले क्षेत्रों में संघर्ष के अतिरिक्त अन्य घटनाएँ; जैसे- असम में असमियों तथा बंगालियों में संघर्ष, महाराष्ट्र में शिव सेना द्वारा उत्तर भारतीयों का विरोध तथा तेलंगाना में आंध्रन का विरोध क्षेत्रवाद की ओर इंगित करती है।
अप्रभावित क्षेत्रों में भी स्थानीय मांगों को उठाया जा रहा है। पाण्डे के अनुसार, “क्षेत्रवाद संघीय संरचना की एक समस्या है। एकता का शाब्दिक अर्थ है अंगों से समग्र का निर्माण करना। इसमें हम अनेकता को मानकर चलते हैं तथा अंगों को एक साथ मिलाना इसका उद्देश्य है। अंगों में अनेकता होते हुए भी पारस्परिक सहायता की भावना होनी चाहिए।"
अरुण चटर्जी के मतानुसार क्षेत्रवाद को बहु-परिणाम सम्बन्धी पृथक् विभागों से निर्मित प्रघटना तथा राष्ट्रीयता में ही निहित प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है। क्षेत्रवाद तथा प्रान्तीयवाद में अन्तर है क्योंकि प्रान्तीयवाद में स्थानीयता, अलगाव तथा पृथकता के विचार निहित हैं। क्षेत्रवाद सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक जीवन में अन्तर से शुरू होता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि किसी क्षेत्र की भाषा अथवा बोली को लेकर या उसकी आर्थिक स्थिति को लेकर वहीं के हित को सर्वोपरि रखकर राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा करना ही क्षेत्रवाद या क्षेत्रीयता है।
क्षेत्रवाद की विशेषतायें
- क्षेत्र के आधार पर प्रषासन का विवेकीकरण पाया जाता है।
- राष्ट्रीय एकता के लिए जब सभी पर एक ही राजनीतिक विचारधारा भाषा सांस्कृतिक प्रतिमान आदि थोपे जाते है तो प्रतिक्रिया स्वरूप सामाजिक सांस्कृतिक प्रति आन्दोलन किया जाता है।
- संघात्मक संरचना में अधिकाधिक उपसंस्कृतियाँ स्वायत्ता प्राप्त करने के लिए राजनीतिक 5.प्रति आन्दोलन करती है।
- क्षेत्रवाद स्थानीय देषभक्ति तथा क्षेत्रीय श्रेष्ठता की भावना को बल देता है।
- क्षेत्रवाद एक सीखा हुआ व्यवहार है।
- क्षेत्रवाद संकीर्णता ही पैदा करता है। क्योंकि एक क्षेत्र के लोग अपनी भाषा , संस्कृति ,
- आदर्ष और सिद्धान्तों को ही श्रेष्ठ समझने लगते है। अपने हितो को ही सर्वोच्च प्राथमिकता देते है तथा अपनी मांग मंगवाने के लिए तोड़ फोड़ दंगे विरोध एवं आन्दोलन का सहारा लेते है।
क्षेत्रवाद के उद्देश्य
सैद्धान्तिक रूप से क्षेत्रवाद के निम्नलिखित पहलू तथा उद्देश्य हैं-
- जहाँ पर प्रशासन तथा सत्ता का अधिक केन्द्रीकरण है वहाँ प्रदेशों के आधार पर प्रशासन का विकेन्द्रीकरण करना,
- एक विशेष राजनीतिक विचारधारा तथा राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध सामाजिक-सांस्कृतिक प्रति-आन्दोलन,
- राष्ट्र के संघीय संरचना के अन्तर्गत उप-सांस्कृतिक क्षेत्रों के लिए अधिक स्वायतता की माँग को लेकर राजनीतिक प्रति-आन्दोलन तथा
- पृथकतावाद की नीति ताकि क्षेत्रीय समूह, जोकि किसी विशेष उप-सांस्कृतिक क्षेत्र में रहता है, के राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति की जा सके।
इन्हीं से सम्बन्धित क्षेत्रवाद के चार उद्देश्य हैं-
- क्षेत्रीय संस्कृतियों का पुनर्गठन,
- प्रशासनीय तथा राजनीतिक निक्षेपण या अवनति,
- केन्द्र तथा राज्यों के संघर्षों को सुलझाने के लिए नियम बनाना ताकि दो अथवा अधिक उप-सांस्कृतिक क्षेत्रों में संघर्ष टाला जा सके तथा
- केन्द्र तथा राज्यों में राष्ट्र तथा उप-सांस्कृतिक क्षेत्रों में आर्थिक एवं राजनीतिक सन्तुलन बनाए रखना।
भारत में क्षेत्रवाद के विकास के कारण
क्षेत्रवाद जैसी समस्या का जन्म एवं विकास किसी एक कारण से नहीं होता है। इसके लिए अनेक कारण उत्तरदायी हैं जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-
- क्षेत्रीय विभिन्नता - क्षेत्रवाद विभिन्न क्षेत्रों में पाई जाने वाली विभिन्नता का उत्पाद है। राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के बाद भी अनेक क्षेत्रों में अलगाव का मनोभाव बना हुआ है; उदाहरणार्थ-महाराष्ट्र में विदर्भ या मराठवाड़ा, गुजरात में सौराष्ट्र, बिहार में झारखण्ड, मध्य प्रदेश में छत्तीसगढ़ या विन्ध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में बुन्देलखण्ड या उत्तराखण्ड या हरित प्रदेश, पश्चिमी बंगाल में गोरखालैण्ड तथा जम्मू-कश्मीर में लद्दाख की माँग इसी मनोवृत्ति का परिणाम है। इनमें से कुछ-एक राज्यों में पृथक् राज्यों के निर्माण हो भी चुके हैं।
- भाषायी लगाव - भाषायी लगाव क्षेत्रवाद की उत्पत्ति का मुख्य कारक है। 1948 ई० में राज्य पुनर्गठन पर विचार करने हेतु नियुक्त दर आयोग ने भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन न करने का विचार व्यक्त किया था; परन्तु राजनीतिज्ञों ने अपने निहित स्वार्थ के लिए भाषायी हितों को आगे बढ़ाना जारी रखा। १९५३ ई० में तेलुगू भाषी लोगों के लिए तत्कालीन मद्रास राज्य का भाग लेकर आन्ध्र प्रदेश नामक नए राज्य की स्थापना की गई। 1956 ई० में भाषाओं के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया।
- विभिन्न क्षेत्रों का असन्तुलित आर्थिक विकास - राज्य के अलग-अलग भागों में आर्थिक विकास की असन्तुलित स्थिति भी क्षेत्रवाद के उदय का एक मुख्य कारक रही है। उदाहरणार्थ-आन्ध्र प्रदेश में तेलंगाना आन्दोलन, महाराष्ट्र में शिवसेना द्वारा चलाया गया आन्दोलन, असम में ऑल असम स्टूडेण्ट्स यूनियन (AASU) तथा ऑल असम गण-संग्राम परिषद् (AAGSP) द्वारा चलाए गए आन्दोलनों के पीछे यही मुख्य कारक हैं।
- सामाजिक अन्याय एवं पिछड़ापन - सामाजिक अन्याय एवं पिछड़ापन क्षेत्रवाद के उदय का एक और मुख्य कारण है। मुख्यतः जब इस पिछड़ेपन में आर्थिक पिछड़ापन भी मिल जाता है तो स्थिति और भी विषम हो जाती है।
- धार्मिक संकीर्णता की भावनाएँ - धर्म भी कई बार क्षेत्रीयवाद की भावनाओं को बढ़ाने में सहायता करता है। पंजाब में अकालियों की पंजाबी सूबे की माँग कुछ हद तक धर्म के प्रभाव का परिणाम ही थी।
- निहित राजनीतिक स्वार्थ - क्षेत्रवाद की भावनाओं को विकसित करने में राजनीतिज्ञों का भी हाथ रहता है। कई राजनीतिज्ञ यह सोचते हैं कि यदि उनके क्षेत्र का अलग राज्य बना दिया जाएगा तो इससे उनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हो जाएगी; अर्थात् उनके हाथ भी सत्ता लग जाएगी।
क्षेत्रवाद एवं भारतीय राजनीति
यह एक विवादास्पद प्रश्न है कि क्षेत्रवाद का भारतीय राजनीति पर धनात्मक प्रभाव पड़ा है अथवा ऋणात्मक? रशीउद्दीन खाँ का मानना है कि क्षेत्रीय आन्दोलनों के कारण भारतीय संघ छिन्न-भिन्न हो जाएगा। यह धारणा मिथ्या सिद्ध हुई है। लगभग इसी प्रकार का दृष्टिकोण मॉरिस जोन्स का भी है। जोन्स का मानना है कि “क्षेत्रीय आन्दोलन उप-राष्ट्रवाद के विकास में सहायक होते हैं, जो कालान्तर में राष्ट्रवाद के विकास में सहायता करते हैं।" इस दृष्टिकोण के समर्थकों का यह मानना है कि भारत में क्षेत्रीय आन्दोलन न्यूनाधिक रूप से पृथकतावादी नहीं रहे हैं। क्षेत्रवाद का लक्ष्य अपने क्षेत्र या समुदाय के लिए अधिक सुविधाएँ प्राप्त करना अथवा विकास की गति को तीव्र करना होता है।
दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार क्षेत्रवाद का भारतीय राजनीति पर ऋणात्मक प्रभाव पड़ा है और इनमें आन्दोलनात्मक राजनीति को बढ़ावा मिला है। इस दृष्टिकोण के समर्थक विद्वानों के अनुसार क्षेत्रवाद ने अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए धर्म, भाषा, जाति जैसे विघटनकारी तत्त्वों का सहारा लिया है, जिससे भारत में राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में नवीन बाधाएँ पैदा हो रही हैं।
वास्तविक स्थिति इन दोनों दृष्टिकोणों के मध्य की है। भारत में विकास की गति असमान रही है, अतएव क्षेत्रीय धरातल पर विरोध स्वाभाविक है। यदि विकास के अवसरों और उससे प्राप्त लाभों का बँटवारा न्यायसंगत तरीके से हो सके तो क्षेत्रीय आन्दोलनों से भारत के संघीय ढाँचे पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा।
भारत में क्षेत्रवाद के निराकरण हेतु सुझाव
किसी भी लोकतान्त्रिक राष्ट्र के लिए, विशेष रूप से ऐसे राष्ट्र के लिए, जो अभी भी राष्ट्रनिर्माण और राष्ट्रीय एकीकरण की समस्याओं से जूझ रहा हो, क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति का विकास एक चिन्ताजनक विषय है। इस समस्या का समाधान एक सोची-समझी, सुविचारित रणनीति द्वारा ही हो सकता है।
क्षेत्रवाद की समस्या के समाधान के कुछ प्रभावशाली उपाय निम्नलिखित हैं-
- सरकार को विकास कार्यक्रमों का निर्माण और उनका क्रियान्वयन कुछ इस प्रकार करना चाहिए कि सन्तुलित क्षेत्रीय विकास को बढ़ावा मिल सके। यह तभी सम्भव है जब नीतियों का निर्धारण राष्ट्रीय हित में हो न कि किसी क्षेत्र विशेष के हित में।
- विशिष्ट जातीय समुदाय की अपनी विशिष्ट संस्कृति और पहचान (Identity) को सुरक्षित रखने के लिए सरकार द्वारा विशेष प्रयास किए जाने चाहिए। इस आशय के प्रावधान मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद 29-30 में भी किए गए हैं। इन्हें पूर्ण ईमानदारी के साथ लागू किया जाना चाहिए।
- जहाँ तक सम्भव हो पिछड़े हुए क्षेत्रों के आर्थिक विकास पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए जिससे उन्हें राष्ट्र की मुख्य विकासधारा से जोड़ा जा सके। संघ सरकार को पिछड़े हुए क्षेत्रों के विकास पर विशेष ध्यान देने के लिए राज्य सरकारों को विशेष निर्देश देना चाहिए।
- क्षेत्रवादी आन्दोलनों की हिंसात्मक प्रवृत्ति पर कठोरता से अंकुश लगाया जाना चाहिए।
- राष्ट्रभाषा को सभी राज्यों को जोड़ने वाला सामान्य आधार बनाया जाना चाहिए। राष्ट्रभाषा के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं का भी उचित सम्मान होना चाहिए तथा उन्हें समृद्ध बनाया जाना चाहिए।
उपर्युक्त उपायों को अपनाने से क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति का समाधान सम्भव है। यदि समय रहते इन उपायों पर ध्यान नहीं दिया गया तो सम्भव है कि एक बार फिर राज्यों का पुनर्गठन करना पड़े। क्षेत्रीयता की समस्या का समाधान करने के लिए राष्ट्रीयता की भावनाओं एवं राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देना अनिवार्य है। राष्ट्रीय एकता की भावना, विभिन्न प्रदेशों का सन्तुलित
आर्थिक विकास एवं विकास की उपयुक्त योजनाओं द्वारा इसका समाधान किया जा सकता है।
शब्दावली
राष्ट्र-निर्माण- राष्ट्र-निर्माण वह प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति लघु जनजातियों, गाँवों अथवा स्थानीय समुदायों के प्रति निष्ठा एवं समर्पण की भावना को वृहत् केन्द्रीय राजनीतिक व्यवस्था को अन्तरित (समर्पित) कर देते हैं। यह राष्ट्र के प्रति वफादारी विकसित करने की प्रक्रिया है।
क्षेत्रवाद- क्षेत्रवाद से अभिप्राय अपने क्षेत्र-विशेष के प्रति अन्धभक्ति अथवा पक्षपातपूर्ण मनोवृत्ति है जिसमें व्यक्ति अन्य क्षेत्रों की उपेक्षा करता है।
बहुलवाद- बहुलवाद वह सिद्धान्त है जिसके अनुसार समाज के विभिन्न समूहों के बीच शक्ति वितरित रहती है। इसकी यह मान्यता है कि समाज में विद्यमान विभिन्न समूहों के हित अलग-अलग हो सकते हैं। अतः समाज की व्यवस्था इस प्रकार की होनी चाहिए कि समाज के सभी विविध समूहों को अपने हितों की प्राप्ति की स्वतन्त्रता हो और उसके लिए उन्हें उचित अवसर उपलब्ध हों।