साम्प्रदायिकता
भारत एक बहुलवादी समाज है। जहाँ पर धर्म के अनेक सकारात्मक कार्य हैं तथा सामाजिक जीवन में धर्म का महत्त्वपूर्ण स्थान है, वहीं पर कई बार धार्मिक संकीर्णता बहुलवादी समाजों में धार्मिक एवं साम्प्रदायिक तनाव का कारण भी बन जाती है। किसी भी बहुलवादी समाज में बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक का प्रश्न एक अत्यन्त नाजुक मामला माना जाता है। यदि सरकार अल्पसंख्यकों को कुछ विशेष अधिकार एवं सुविधाएँ प्रदान करने का प्रयास करती है तो बहुसंख्यक सम्प्रदाय इसे सरलता से सहन नहीं करता है और इसका विरोध करता है।
यदि सरकार बहुसंख्यकों को कुछ सुविधाएँ प्रदान करती है तो अल्पसंख्यक इसे अपना शोषण मानते हैं और अल्पसंख्यक होने के नाते बहुसंख्यकों को दी जाने वाली सुविधाओं से कहीं अधिक सुविधाओं की माँग करने लगते हैं। इससे अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक सम्प्रदायों में सामाजिक दूरी बढ़ने लगती है तथा अन्ततः इसका परिणाम धार्मिक एवं साम्प्रदायिक तनाव के रूप में सामने आता है।
धार्मिक एवं साम्प्रदायिक तनाव को ही साम्प्रदायिकता कहा जाता है। आज भारत में पाई जाने वाली सभी समस्याओं में साम्प्रदायिकता की समस्या सबसे प्रमुख मानी जाती है। यह समस्या इतनी गम्भीर होती जा रही है कि कोई भी सरकार इसका उचित समाधान खोजने में सफल नहीं हो पा रही है और न ही विभिन्न राजनीतिक दलों में इस समस्या के समाधान के बारे में कोई आम राय ही बन पा रही है। साम्प्रदायिकता की भाँति क्षेत्रवाद भी भारतीय समाज की एक प्रमुख समस्या है। आज भी अनेक राज्यों में विभाजन की माँग सरकार के लिए चिन्ता का विषय बनी हुई है।
प्रस्तावना
परिवार से लेकर बाजार तक की विभिन्न सामाजिक संस्थाएँ एक ओर लोगों को परस्पर सम्पर्क में लाती हैं तथा उनमें प्रबल सामूहिक पहचान स्थापित करती हैं, तो दूसरी ओर यही संस्थाएँ असमानता और अपवर्जन का स्रोत भी हो सकती हैं। किसी समाज या समुदाय की संस्कृति में पाई जाने वाली विविधता असमानताओं के बजाय अन्तरों पर बल देती है। उदाहरणार्थ, जब हम यह कहते हैं कि भारत में सांस्कृतिक विविधता पाई जाती है तो इससे तात्पर्य वहाँ पाए जाने वाले अनेक प्रकार के सामाजिक समूहों एवं समुदायों से है जो भाषा, जाति, प्रजाति, धर्म, पन्थ आदि द्वारा परिभाषित होते हैं।
चूँकि सांस्कृतिक पहचानें अत्यन्त प्रबल होती हैं, इसलिए सांस्कृतिक विविधता एक कठोर चुनौती प्रस्तुत करती है। प्रत्येक व्यक्ति को अपना अस्तित्व बनाए रखने हेतु एक स्थायी पहचान की आवश्यकता होती है। समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा हमें पता चलता है कि हमारे माता-पिता, परिजन, नातेदार, समूह तथा समुदाय कौन-सा है। समुदाय ही हमें भाषा और सांस्कृतिक मूल्य प्रदान करता है तथा हमारी स्वयं की पहचान को बनाता है।
साम्प्रदायिकता का अर्थ
श्रीकृष्णदत्त भट्ट के अनुसार साम्प्रदायवाद का अर्थ है मेरा साम्प्रदाय, मेरा पथ, मेरा मत ही सबसे अच्छा है मेरे साम्प्रदाय की ही तूती बोलनी चाहऐं उसकी ही सत्ता मानी जानी चहिऐं स्मिथ के अनुसार एक साम्प्रदाय व्यक्ति अथवा समूह वह है कि जो अपने धार्मिक या भाषा भाषी समूह को एक ऐसी पूर्थक राजनैतिक तथा समाजिक इकाई के रूप में देखता है जिसके हित अन्य समूहों से पूर्थक होते है और जो अक्सर उनके विरोधी भी हो सकते है।
साम्प्रदायिकता की समस्या
अब तो भारत में शायद ही कोई ऐसा दिन बीतता हो जिस दिन दैनिक अखबार में साम्प्रदायिक दंगों का समाचार न होता हो। यह साम्प्रदायिक दंगे कहीं दो सम्प्रदायों या धर्मों के बीच, तो कहीं एक ही धार्मिक सम्प्रदाय के दो उप-सम्प्रदायों के बीच, तो कहीं विभिन्न जातियों के बीच अपना रंग दिखाते रहते हैं। इनके परिणामस्वरूप जन और धन की बहुत हानि होती है और समाज के साम्प्रदायिक सद्भाव के हृदय-पटल पर दरार की गहरी रेखा खिंच जाती है। एस० एल० शर्मा के अनुसार यद्यपि भारत में साम्प्रदायिकता का एक लम्बा इतिहास रहा है तथापि पिछले कुछ वर्षों में यह एक अत्यन्त चिन्ताजनक विषय बन गया है। यह उन क्षेत्रों में भी फैलता जा रहा है जिनमें पहले ऐसा नहीं होता था; उदाहरणार्थ-राजस्थान में जयपुर, उत्तर प्रदेश में बदायूँ तथा मध्य प्रदेश में रतलाम इत्यादि। साथ ही, पहले साम्प्रदायिक हिंसा छोटे नगरों तक सीमित थी परन्तु अब वह विकास की ओर अग्रसर व्यापारिक तथा औद्योगिक नगरों (जैसे अहमदाबाद, जमशेदपुर, भिवण्डी, मुरादाबाद आदि) में भी फैलती जा रही है। कुछ नगरों (जैसे अलीगढ़, मेरठ, हैदराबाद आदि) साम्प्रदायिकता की दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील बन गए हैं तथा इनमें सदैव हिंसा का डर बना रहता है। बिपन चन्द्र ने उचित ही लिखा है, "साम्प्रदायिकता सम्भवतः सबसे गम्भीर समस्या है जिसका सामना भारतीय समाज आज कर रहा है।” इसलिए इस समस्या का समाधान ढूँढना राष्ट्रहित के लिए बहुत आवश्यक है।
इस समस्या की प्रकृति पर प्रकाश डालते हुए डी० आर० गोयल ने इस बात पर बल दिया है कि साम्प्रदायिक तनावों तथा उपद्रवों को मौलिक एकता की कमी के सूचक के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि एक ऐसे कारक के रूप में जिससे विघटन होता है। यह सत्य है कि इससे एकता में कुछ रुकावट पड़ती है परन्तु आधुनिक तकनीकी तथा विचारों से ऐसा होना सम्भव है। इस समस्या को सही रूप से आँकने के लिए यह आवश्यक है कि साम्प्रदायिकता के अर्थ एवं कारणों को समझा जाए।
साम्प्रदायिकता एक निम्न कोटि की विभाजनात्मक प्रवृत्ति है जिसके कारण प्रथमत: देश का विभाजन हुआ तथा स्वतन्त्रता के पश्चात् साम्प्रदायिक तनावों तथा उपद्रवों ने राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया में बाधा डाली है। इन उपद्रवों से हिंसा भड़कती है तथा तनाव पैदा होता है जिससे राष्ट्रीयता एवं राष्ट्र-निर्माण की भावनाएँ प्रभावित होती हैं। साम्प्रदायिकता प्रजातन्त्रीय व्यवस्था में एक कलंक है और राष्ट्र निर्माण को नुकसान पहुँचाती है।
धार्मिक पहचान पर आधारित आक्रामक उग्रवाद को सामान्य बोलचाल की भाषा में सम्प्रदायवाद या साम्प्रदायिकता कहते हैं। उग्रवाद अपने आप में एक ऐसी मनोवृत्ति है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति अपने ही समूह को वैध या श्रेष्ठ समूह मानता है और अन्य समूहों को निम्न, अवैध अथवा विरोधी समझता है। अन्य शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि साम्प्रदायिकता एक आक्रामक राजनीतिक विचारधारा है जो धर्म से जुड़ी होती है। यद्यपि अंग्रेजी भाषा का ‘कम्यूनल' शब्द व्यक्ति की अपेक्षा समुदाय या सामुदायिकता से जुड़ा हुआ है, तथापि भारत एवं दक्षिण एशियाई देशों में साम्प्रदायिकता शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं किया जाता। साम्प्रदायिकता व्यक्ति में एक ऐसी आक्रामक राजनीतिक पहचान बनाती है कि वह अन्य सम्प्रदायों के लोगों की निन्दा करने या उन पर आक्रमण करने को तैयार हो जाते हैं। सम्प्रदायों के लोगों की निन्दा करने या उन पर आक्रमण करने को तैयार हो जाते हैं। साम्प्रदायिकता में धार्मिक पहचान अन्य सभी की तुलना में सर्वोपरि होती है अर्थात् इसमें अमीर-गरीब, व्यवसाय, जाति, राजनीतिक विश्वास इत्यादि के आधार पर अन्तर नहीं होता। भारत में साम्प्रदायिकता एक विशेष मुद्दा मानी जाती है। इसका कारण यह है कि साम्प्रदायिकता समय-समय पर तनाव एवं हिंसा का पुनरावर्तक स्रोत रही है।
धर्मनिरपेक्षता अथवा लौकिकता सामाजिक और राजनीतिक सिद्धान्त में प्रस्तुत सर्वाधिक जटिल शब्द माने जाते हैं। पश्चिम में इन शब्दों का मुख्य भाव चर्च और राज्य की पृथकता का द्योतक है। धार्मिक और राजनीतिक सत्ता के पृथक्करण में पश्चिम के इतिहास में एक बड़ा मोड़ ला दिया क्योंकि इस विचारधारा ने आधुनिकता के आगमन और विश्व को समझने के धार्मिक तरीकों के विकल्प के रूप में अपने आप को प्रस्तुत किया। भारतीय सन्दर्भ में पश्चिमी भाव के अतिरिक्त धर्मनिरपेक्षता के कुछ अन्य अर्थ भी हैं। इस शब्द का सर्वाधिक प्रयोग ‘साम्प्रदायिक' के विलोम के रूप में किया जाता है अर्थात् वह व्यक्ति या राज्य धर्मनिरपेक्ष है जो किसी विशेष धर्म का अन्य धर्मों की तुलना में पक्ष नहीं लेता। इस अर्थ में धर्मनिरपेक्षता धार्मिक उग्रवाद का विरोधी भाव है और इसमें धर्म के प्रति विद्वेष का भाव होना आवश्यक नहीं होता। धर्मनिरपेक्षता का यह भाव सभी धर्मों के प्रति समान आदर का द्योतक होता है, न कि अलगाव या दूरी का।
साम्प्रदायिक तनाव या साम्प्रदायिकता एक ऐसा शब्द है जो भारतीय पृष्ठभूमि में समस्याबोधक और दुर्भाग्यपूर्ण अर्थ वाला हो गया है। पश्चिमी देशों में यह शब्द सामुदायिक सहायता एवं भाईचारे के लिए प्रयोग होता है। पश्चिमी समाजों में यह एक वैचारिकी (Ideology) को व्यक्त करता है जिसका उद्देश्य सामुदायिकता की भावना, हम की भावना तथा पारस्परिक सहायता की भावना की पुनर्स्थापना करना है। अत: वहाँ यह शब्द धनात्मक रूप में प्रयोग होता है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से अंग्रेजी शब्द 'Communalism' 'communis' शब्द से बना है जिसका अर्थ है 'मिल-जुलकर रहना'; परन्तु हमारे समाज की विशेष परिस्थितियोंवश यहाँ साम्प्रदायिकता से अभिप्राय अपने धार्मिक सम्प्रदाय से भिन्न अन्य सम्प्रदाय अथवा सम्प्रदायों के प्रति उदासीनता, उपेक्षा, दयादृष्टि, घृणा, विरोध व आक्रमण की भावना से है जिसका आधार वह वास्तविक या काल्पनिक भय है कि उक्त सम्प्रदाय हमारे सम्प्रदाय को नष्ट कर देने या हमें जान-माल की हानि पहुँचाने के लिए कटिबद्ध है या वही हमारे कष्टों के लिए जिम्मेदार है। अतः भारत में यह शब्द ऋणात्मक अर्थ के रूप में प्रयोग होता है। एस० एल० शर्मा के अनुसार, साम्प्रदायिकता शब्द का प्रयोग व्यापक तथा सीमित दोनों रूपों में किया जाता है। व्यापक अर्थ में यह दो या अधिक सम्प्रदायों में प्रतिरोध (Antagonsim) को व्यक्त करता है तथा ये सम्प्रदाय नृजातीय (Ethnic), प्रजातीय, धार्मिक या जातीय आधार पर हो सकते हैं। विशिष्ट (सीमित) अर्थ में यह दो या अधिक धार्मिक सम्प्रदायों में प्रतिरोध को व्यक्त करता है। उन्होंने इस शब्द का प्रयोग भारतीय समाज के सन्दर्भ में विशिष्ट अर्थ में किया है। बलराज मधोक के शब्दों में, “साम्प्रदायिकता कुछ धार्मिक वर्गों का राष्ट्र अथवा अन्य धार्मिक वर्गों की कीमत पर अपने लिए विशेष राजनीतिक अधिकार एवं अन्य सुविधाओं की माँग करना है।" इसी भावना से प्रेरित होकर अनेक साम्प्रदायिक संगठनों का निर्माण होता है।
बिपन चन्द्र ने साम्प्रदायिकता के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, “साम्प्रदायिकता मौलिक रूप से और सबसे ऊपर एक विचारधारा (Ideology) है जिसके साम्प्रदायिक दंगे और अन्य रूपों में साम्प्रदायिक हिंसा परिणाम हैं। साम्प्रदायिक विचारधारा तो बिना हिंसा के भी अस्तित्व बनाए रख सकती है परन्तु साम्प्रदायिक हिंसा बिना साम्प्रदायिक विचारधारा के नहीं हो सकती।" उन्होंने आगे लिखा है कि साम्प्रदायिकता में तीन तत्त्व अथवा चरण होते हैं- प्रथम, यह केवल धर्म तक ही सीमित नहीं होती अपितु इसका विश्वास यह होता है कि एक धर्म के अनुयायियों के आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक हित भी समान हैं; द्वितीय, इसका यह भी विश्वास है कि अन्य धर्म या धर्मों के अनुयायियों के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक हित उनके सम्प्रदाय से भिन्न हैं; तथा तृतीय, सम्प्रदायों के लौकिक हित न केवल भिन्न हैं वरन् एक-दूसरे के विरोधी भी हैं।
साम्प्रदायिक तनावों एवं उपद्रवों के कारण
- ऐसिहासिक कारक - यह एक ऐसिहासिक सत्य है कि मुसलमान बाहर से आये और उन्होंने भारत में अपने धर्म प्रचार के लिए तलवार एवं जोर जबरदस्ती का सहारा लिया। मुसलिम लिग की मांग ने भारत के दो टुकटे किये विभाजन के समय दोनों ओर से होने वाले दंगों से हुई हानियों को कई लोग आज तक नही बुला पायें ।
- साँस्कृतिक भिन्नता - साम्प्रदायिकता को जन्म देने में एक महत्वपूर्ण कारक हिन्दू एवं मुसलमानों की सांस्कृतिक भिन्नता है दोनों का रहन सहन खान पान रीति रिवाज एवं विचार धारा में बहुत भिन्नता है यह सॉस्कृतिक मत भेद मन मुटाव एवं तनाव पैदा करता है और दोनो साम्प्रदायों में अलगावों की स्थिति बनी रहती है।
- राजनैतिक स्वार्थ - राजनैतिक स्वार्थ भी साम्प्रदायिक तनाव एवं उपद्रवो एक प्रमुख कारण है कई राजनैतिक दलों का गठन धार्मिक अधार पर किया जाता है । यह राजानैतिक दल मत प्राप्त करने एवं राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए साम्प्रायिकता की आग भडकाते है।
- साम्प्रायिक संगठन - जैन, सिक्ख, हिन्दू और मुसलमानों में कई साम्प्रादयिक संगठन पाये जाते है यह साम्प्रायिक संगठन अपने अपने मतावलम्बियों को संगठित करते है और उन्हें दूसरों के प्रति भडकाते है।
साम्प्रदायिकता के कारणों की खोज
आधुनिक साम्प्रदायिक उपद्रव न तो धर्म की उच्चता तथा निम्नता पर आधारित हैं और न ही संघर्षात्मक समूहों में उपद्रव है, अपितु एक सम्प्रदाय के व्यक्ति दूसरे सम्प्रदाय के व्यक्तियों से बदले की भावना से लड़ते हैं क्योंकि किसी एक सम्प्रदाय द्वारा दूसरे को किसी बात के लिए दोषी मान लिया जाता है। इस भाँति, साम्प्रदायिकता एक जटिल भावात्मक तथ्य को प्रकट करती है। अनेक विद्वानों ने उसके कारणों की खोज का प्रयास किया है। परिणामत: कई स्पष्टीकरण भी उभरे हैं। कुछ ने आर्थिक विषमता को तो कुछ ने विभिन्न सम्प्रदायों के बीच महत्त्वाकांक्षाओं और उभरते हुए वर्गों को साम्प्रदायिक दंगों के लिए दोषी ठहराया है। इन विभिन्न दृष्टिकोणों के आधार पर साम्प्रदायिकता के निम्नलिखित प्रमुख कारणों का वर्णन किया जा सकता है
- धार्मिक संकीर्णता- भारत में साम्प्रदायिकता के विकास का एक कारण बलपूर्वक धर्म प्रचार कहा जा सकता है। मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना के बाद कुछ मुसलमान शासकों ने हिन्दुओं को बलात् मुसलमान बनाना शुरू किया। इससे हिन्दुओं में संकीर्णता एवं घृणा की भावनाएँ बढ़ीं। पुर्तगालियों तथा अंग्रेजों ने भी शासन को अधिक मजबूत बनाने के लिए पादरियों का सहारा लिया और ईसाई धर्म का प्रचार किया तथा धर्म परिवर्तन को प्रोत्साहित किया। आज यही धार्मिक संकीर्णता की प्रबल भावना हमें हिन्दुओं, मुसलमानों, ईसाइयों, सिक्खों के बीच पाए जाने वाले सम्बन्धों में देखने को मिलती है। आज यही धार्मिक संकीर्णता साम्प्रदायिकता के पीछे एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। प्रमुख राजनीतिशास्त्री प्रो० इम्तियाज अहमद ने इस तथ्य की पुष्टि करते हुए कहा है कि पिछले डेढ़-दो दशक के दौरान हमारे देश के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक वातावरण में जो संकीर्णता आती जा रही है, 2002 ई० में अहमदाबाद और गोधरा की साम्प्रदायिक घटना उसी की कड़ी हैं और कुछ हद तक इसका परिणाम भी हैं।
- अपने धर्म के प्रति श्रेष्ठता एवं सम्मान की भावना- साम्प्रदायिकता का दूसरा कारण यह है कि प्रत्येक सम्प्रदाय का व्यक्ति अपने धार्मिक विश्वासों से इतना जकड़ चुका है कि उसमें धार्मिक सहिष्णुता बिलकुल नहीं रह गई है। आज विविध प्रकार के सेवा कार्य भी धर्म के नाम पर होते हैं। धर्मशालाएँ, स्कूल, मन्दिर, आदि धर्म पर ही आधारित हैं। आज धर्म और उसके कार्य शक्ति सन्तुलन से भी सम्बन्धित हो गए हैं। इन सबसे साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है।
- दोषपूर्ण नेतृत्व- साम्प्रदायिकता का तीसरा कारण हमारा दोषपूर्ण नेतृत्व है। वर्तमान में राजनीतिक नेता नेतृत्व के लिए धर्म का सहारा लेते हैं और धार्मिक नेता राजनीति में अवैध रूप से प्रविष्ट हो रहे हैं। हिन्दुओं में यह भावना पैदा हो गई है कि वे बहुमत में होते हुए भी उत्पीड़न के शिकार हैं और सरकार अल्पमतों को तुष्ट करने में लगी हुई है। इसलिए और कितना सहा जाए? दूसरी ओर, मुसलमान अल्पसंख्यक होने के कारण बहुसंख्यकों द्वारा अपने उत्पीड़न की बात, तो कुछ सिक्ख खालिस्तान की बात करते हैं।
- उग्रवादी विचारधारा- भारत में साम्प्रदायिक तनाव के लिए उग्रवादी विचारधारा तथा इसमें विश्वास रखने वाले उग्रवादी नेताओं की भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता। प्रो० इम्तियाज अहमद ने गुजरात में हाल में ही हुए दंगों के सन्दर्भ में इस तथ्य की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए लिखा है कि भारत में राज्य का जो ढाँचा है, वह बुनियादी तौर पर धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक सन्तुलन पर आधारित है। यहाँ कि अधिकतर जनता इस अवधारणा को स्वीकार करती है और इसी के अनुरूप आचरण भी करती है। उनकी सार्वजनिक चेतना भी इसकी पक्षधर है, लेकिन समुदायों के हाशिए पर जो उग्रवादी विचारधारा रखने वाले लोग हैं, वे इससे भिन्न राय रखते हैं। ऐसे लोग इस समय देश के वातावरण पर हावी हैं और इसी के कारण राज्य की अपने नागरिकों को सुरक्षा देने की क्षमता प्रभावित हुई है, या दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसा करने में राज्य असमर्थ सिद्ध हुआ है।
- राजनीतिक स्वार्थ- भारत में स्वतन्त्रता के बाद से ही राजनीति ने साम्प्रदायिकता का संरक्षण किया है। धर्म का राजनीतिकरण हुआ है। अधिकांश विद्वानों के अनुसार शाहबानो तथा रामजन्मभूमि-बाबरी मसजिद विवाद इसी राजनीतिकरण तथा राजनीतिक संरक्षण का परिणाम हैं। कुछ विद्वानों ने तो साम्प्रदायिकता को धर्म व राजनीति में अपवित्र (दुष्ट) गठबन्धन के रूप में परिभाषित करने पर बल दिया है। राजनीतिक स्वार्थ के कारण भी साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन मिलता है। अंग्रेजों ने शासन चलाने के लिए 'फूट डालो और राज करो' की नीति को अपनाया; इसलिए उन्होंने जातिभेद और धर्म-भेद का सहारा लिया। स्वतन्त्रता के बाद भारतीय नेताओं और विभिन्न वर्गों ने भी अपने व्यक्तिगत राजनीतिक हित की पूर्ति के लिए इसी सिद्धान्त का सहारा लिया है, जिससे जातिवाद और साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है।
- मनोवैज्ञानिक कारण- प्राय: अल्पसंख्यकों और पिछड़े वर्गों में बहुसंख्यकों द्वारा सताए जाने की भावना होती है। चाहे यह उत्पीड़न वास्तव में हो और चाहे वे ऐसा महसूस कर रहे हों, परन्तु उनके लिए यह एक सत्य है। इसके अतिरिक्त, अपनी अस्मिता के मिटने का भी खतरा उन्हें महसूस होता है। कभी-कभी अपने सामाजिक कष्टों के लिए दोषारोपण के लिए अन्य सम्प्रदाय को चुन लिया जाता है और अपनी भग्नाशाओं का आक्रोश उन पर निकाल लिया जाता है। अन्त में, एक सम्प्रदाय द्वारा दूसरे को सबक सिखाने की प्रवृत्ति भी साम्प्रदायिकता की आग में घी का काम करती है।
- आर्थिक एवं सामाजिक विषमता- आर्थिक सम्पन्नता के स्तर की दृष्टि से विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों में विषमता है, विशेषतः विकास की प्रक्रिया में कुछ सम्प्रदाय आगे बढ़ गए हैं तो कुछ इस दौड़ में पिछड़ गए हैं। लेकिन सभी के हृदय में विकास के फलों में हिस्सा प्राप्त करने की निरन्तर वृद्धिशील चाह होती है। इसलिए आर्थिक रूप से पिछड़े सम्प्रदायों में यह भावना आ जाती है कि वे सापेक्षिक रूप से उस सब से वंचित कर दिए गए हैं जो उन्हें देय था। इसलिए उन हितों की पुन: प्राप्ति के लिए या 'दोषी' को दण्डित करने के लिए धर्म का एक यन्त्र के रूप में प्रयोग किया जाता है। लुईस ड्यूमों तथा सतीश सबरवाल जैसे विद्वानों ने सामाजिक पहचान (विशिष्टता) तथा साम्प्रदायिक पृथक्करण को उभारने में धर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। आर्थिक प्रतिद्वन्द्विता को भी इसका एक कारण माना गया है। असगर अली इन्जीनियर ने अनेक अध्ययनों के निष्कर्षों के आधार पर हमें यह बताया है कि मुसलमानों व हिन्दुओं में आर्थिक प्रतियोगिता ने भी साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया है। इम्तियाज अहमद ने मुरादाबाद तथा अलीगढ़ में साम्प्रदायिक दंगों का एक कारण पहले से संस्थापित हिन्दू औद्योगिक वर्ग एवं नवोदित मुस्लिम उद्यमिता वर्ग में आर्थिक प्रतियोगिता बताया है।
- अन्तर्राष्ट्रीय कारक- आजकल एक देश में साम्प्रदायिक दंगों में और साम्प्रदायिकता के प्रोत्साहन में किसी विदेशी शक्ति का हाथ होना; असामान्य घटना होना नहीं रह गया है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति प्रत्यक्ष रूप से साम्प्रदायिकता का महत्त्वपूर्ण कारक बन गई है। हमारे देश में पंजाब समस्या, असम समस्या, कश्मीर समस्या और देश में फैले हिन्दू-मुस्लिम दंगों के पीछे विदेशी हाथ की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।
साम्प्रदायिकता या साम्प्रदायिक हिंसा का समाजशास्त्र
भारत के सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रो० योगेन्द्र सिंह के अनुसार साम्प्रदायिक हिंसा का अपना एक अलग समाजशास्त्र होता है और यह हिंसा के अन्य सभी रूपों के समाजशास्त्र से भिन्न होता है। इनके अनुसार साम्प्रदायिक हिंसा को छोड़कर अन्य सभी प्रकार की हिंसा के सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक कारण होते हैं, जबकि साम्प्रदायिक हिंसा के साथ ऐसा नहीं होता। इसका आर्थिक विकास से कोई सम्बन्ध नहीं होता। अन्य सभी प्रकार की हिंसा कहीं-न-कहीं गरीबी और असमानता से जुड़ी हुई होती है, जबकि साम्प्रदायिक हिंसा अक्सर पूर्व-नियोजित एवं कुछ लोगों द्वारा निहित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए होती है। इन्होंने अपने तथ्य की पुष्टि हेतु आर्थिक रूप से भारत के अन्य राज्यों की अपेक्षा अधिक दृष्टि से सम्पन्न राज्य गुजरात तथा महाराष्ट्र का उदाहरण दिया है, जिनमें साम्प्रदायिक तनाव सबसे अधिक पाया जाता है।
प्रो० योगेन्द्र सिंह के अनुसार साम्प्रदायिक हिंसा कभी भी, कहीं भी हो सकती है। यह एक नगरीय अवधारणा है और गाँव में अभी इसका प्रभाव लगभग नहीं के बराबर है। इस बार गुजरात में हुए साम्प्रदायिक तनाव का प्रभाव नगरों के इर्द-गिर्द बसे गाँव तक भी पहुँच गया है। इनके अनुसार लोगों में व्याप्त डर उन नगरों में साम्प्रदायिक हिंसा की सम्भावना को बढ़ा देता है जिनमें पहले भी साम्प्रदायिक हिंसा होती रही है। ऐसे नगरों में किसी खास समुदाय या सम्प्रदाय की अलग कॉलोनियों की संख्या बढ़ जाती है और इस प्रकार वे साम्प्रदायिक हिंसा के समय अलग से पहचाने जाते हैं। ऐसी अलग कॉलोनियों का सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि समाज का एक समुदाय या दूसरे समुदाय से संवाद कम हो जाता है, समाज का बहुलवाद कमजोर हो जाता है, संकीर्ण मानसिकता पनपने लगती है, जो अगली साम्प्रदायिक हिंसा को जमीन मुहैया कराती है। इनके अनुसार साम्प्रदायिक हिंसा का मूल कारण धार्मिक न होकर राजनीतिक होता है। साम्प्रदायिक तनाव का फायदा उठाकर कुछ नेता टाइप के लोग उस पर राजनीति करने लगते हैं, तब जाकर यह तनाव साम्प्रदायिक हिंसा का रूप ले लेता है।
साम्प्रदायिकता को रोकने के उपाय
डी० आर० गोयल ने साम्प्रदायिकता को रोकने के निम्नलिखित तीन उपाय बताए हैं-
- प्रशासनिक व्यवस्था इतनी प्रभावशाली बनाई जानी चाहिए कि साम्प्रदायिक तनावों का पूर्वानुमान लगाया जा सके तथा इन्हें रोकने के लिए कठोर कदम उठाए जा सकें।
- साम्प्रदायिक तत्त्वों को पहचान कर उनका भण्डा-फोड़ करना चाहिए ताकि सन्देह की स्थिति में जनता ऐसे तत्त्वों का साथ न दे।
- राष्ट्रीयता के बारे में साम्प्रदायिक विचारों का मुकाबला राजनीतिक प्रचार द्वारा किया जाना चाहिए। शिक्षा-संस्थाओं तथा शिक्षा प्रक्रियाओं को इन तत्त्वों का विरोध करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
इन सब उपायों से अधिक कारगर साम्प्रदायिक संगठनों पर रोक लगाना तथा उनकी गतिविधियों पर निरन्तर ध्यान रखने की आवश्यकता है। उन प्रादेशिक दलों का, जोकि साम्प्रदायिकता अथवा प्रादेशिकता के नाम पर जनता को गुमराह कर रहे हैं, राजनीतिक स्तर पर मुकाबला किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, निम्नलिखित सुझाव भी साम्प्रदायिकता को रोकने में सहायक हो सकते हैं-
- साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले समाचारपत्रों व साहित्य के प्रकाशकों के विरुद्ध कठोर कदम उठाए जाने चाहिए।
- राष्ट्रीय जन संचार के साधनों का प्रयोग राष्ट्रीय एकता के लिए जनमत तैयार करने के लिए किया जाना चाहिए।
- धार्मिक नेताओं को लोगों को भड़काने की अपेक्षा सहिष्णुता के विकास के लिए सहयोग देना चाहिए।
- नैतिक शिक्षा का प्रचार किया जाना चाहिए।
साम्प्रदायिकता के विषय में यह कहा जा सकता है कि स्थिति अभी लाइलाज नहीं हुई है। असगर अली इन्जीनियर ने उचित ही लिखा है कि, “जनसमूह धार्मिक है, साम्प्रदायिक नहीं है। सभी समुदायों में शुभेच्छा वाले धार्मिक और लौकिक नेता भी विद्यमान हैं। हम निश्चय ही साम्प्रदायिकता की आवृत्ति और गहराई को कम कर सकते हैं।" एस० एल० शर्मा ने जनता, विशेषतः युवा पीढ़ी के मस्तिष्क को असाम्प्रदायिक बनाने की आवश्यकता पर बल दिया है। शिक्षा को लौकिकीकरण अथवा धर्मनिरपेक्षता के अनुरूप मूल्यों को बढ़ावा देने वाली बनाना होगा। कप!, बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ तथा शान्ति समितियों का गठन; कानून व व्यवस्था से सम्बन्धित साम्प्रदायिकता के आयाम पर नियन्त्रण के केवल अल्पकालीन उपाय हैं। दीर्घकालीन उपायों में राजनीति को स्वच्छ बनाना, शिक्षा को पुनर्गठित करना तथा युवा पीढ़ी का उचित समाजीकरण प्रमुख हैं।
साम्प्रदायिकता को रोकने के लिए धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देना चाहिए। धर्मनिरपेक्षता अथवा धर्मनिरपेक्षतावाद सामाजिक और राजनीतिक सिद्धान्त में प्रस्तुत सर्वाधिक जटिल शब्द माने जाते हैं। पश्चिम में इन शब्दों का मुख्य भाव चर्च और राज्य की पृथक्ता का द्योतक है। धार्मिक और राजनीतिक सत्ता के पृथक्करण में पश्चिम के इतिहास में एक बड़ा मोड़ ला दिया क्योंकि इस विचारधारा ने आधुनिकता के आगमन और विश्व को समझने के धार्मिक तरीकों के विकल्प के रूप में अपने आप को प्रस्तुत किया। भारतीय सन्दर्भ में पश्चिमी भाव के अतिरिक्त धर्मनिरपेक्षता के कुछ अन्य अर्थ भी हैं। इस शब्द का सर्वाधिक प्रयोग ‘साम्प्रदायिक' के विलोम के रूप में किया जाता है अर्थात् वह व्यक्ति या राज्य धर्मनिरपेक्ष है जो किसी विशेष धर्म का अन्य धर्मों की तुलना में पक्ष नहीं लेता। इस अर्थ में धर्मनिरपेक्षता धार्मिक उग्रवाद का विरोधी भाव है और इसमें धर्म के प्रति विद्वेष का भाव होना आवश्यक नहीं होता। धर्मनिरपेक्षता का यह भाव सभी धर्मों के प्रति समान आदर का द्योतक होता है, न कि अलगाव या दूरी का।
भारतभूमि पर अनेक अल्पसंख्यक समुदाय बसते हैं। उनके प्रवास की लम्बी अवधि के दौरान उनका कुछ सीमा तक भारतीयकरण भी हुआ है। सभी धर्मों में नीति के सामान्य नियम हैं। सभी मानव प्रेम, समानता, सुविचार, सुवचन और सुआचरण पर जोर देते हैं। भारतीय समाज की यह धार्मिक बहुलता उसके लिए धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय नीति की अनिवार्यता को प्रकट करती है। भारतीय समाज की समृद्धि और ऐतिहासिक परम्परा में, सभी धर्मावलम्बी समान रूप से भागीदार हैं। भारत का सन्देश ही मानव-प्रेम है और उसकी खोज आध्यात्मिकता है। आज के भौतिकवाद और विज्ञानवाद ने मानव-समाज को विनाश के कगार पर ला खड़ा किया है। कदाचित् इसी क्षण के लिए प्रकृति ने भारतीय संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखा है। उसका एक ही मिशन है- मानव-जाति को भौतिकवाद और अध्यात्मवाद के सन्तुलित योग की शिक्षा देकर सही रास्ता दिखाना। भारत का धार्मिक बहुलवाद भारतीय समाज के लिए गर्व का विषय होना चाहिए। यही वह प्रयोगशाला है जो धार्मिक सहअस्तित्व एवं सहयोग के प्रयोगसिद्ध परिणाम दे सकती है। भारतीय चेतना को इसी समय की माँग को पूरा करना है। यह उसका विश्व के प्रति नैतिक दायित्व है। यदि हम इसमें असफल रहे तो समस्त मानव जाति के साथ हम भी विनष्ट हो जाएँगे। हमें सिद्ध करना है कि भारतभूमि वह महान उद्यान है जहाँ देशी और विदेशी सभी धार्मिक बिरवे पनप सकते हैं, वृक्ष बन सकते हैं, पल्लवित और पुष्पित हो सकते हैं और सारे विश्व को अपनी महक से भर रहे हैं। भारत में बहुलवादी परम्पराओं के व्यापक आधार विविधता में एकता द्वारा प्रकट होते हैं। विविधताएँ होते हुए भी भारत एक बहुलवादी समाज है जिसमें सांस्कृतिक एकता पाई जाती है।
शब्दावली
- साम्प्रदायिकता- धार्मिक पहचान पर आधारित आक्रामक उग्रवाद को साम्प्रदायिकता कहते हैं। अपने सम्प्रदाय से भिन्न अन्य सम्प्रदाय के प्रति उदासीनता, उपेक्षा, हेय दृष्टि, घृणा, विरोध एवं आक्रमण की वह भावना साम्प्रदायिकता कहलाती है जिसका आधार यह वास्तविक या काल्पनिक आशंका है कि उक्त सम्प्रदाय हमारे अपने सम्प्रदाय और संस्कृति को नष्ट कर देने या जान-माल की क्षति पहुँचाने के लिए कटिबद्ध है।
- राष्ट्र-निर्माण- राष्ट्र-निर्माण वह प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति लघु जनजातियों, गाँवों अथवा स्थानीय समुदायों के प्रति निष्ठा एवं समर्पण की भावना को वृहत् केन्द्रीय राजनीतिक व्यवस्था को अन्तरित (समर्पित) कर देते हैं। यह राष्ट्र के प्रति वफादारी विकसित करने की प्रक्रिया है।
- क्षेत्रवाद- क्षेत्रवाद से अभिप्राय अपने क्षेत्र-विशेष के प्रति अन्धभक्ति अथवा पक्षपातपूर्ण मनोवृत्ति है जिसमें व्यक्ति अन्य क्षेत्रों की उपेक्षा करता है।