आनुवंशिकता किसे कहते हैं?
प्रत्येक जाति के जीव दूसरे जाति के जीव से तथा एक ही जाति का एक जीव अपनी ही जाति के दूसरे जीव से भिन्न होता है। यह विभिन्न्ता किसी भी स्तर पर हो सकती है- जैसे- रूप, रंग, आकार, व्यवहार, आकारिकी, कार्यिकी। जीवों में इस विभिन्नता और एक ही जाति के जीवों तथा एक ही परिवार के सदस्यों में लक्षणों की समानता को अनेक आयामों पर समझा जा सकता है जैसे- सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणिक, भौगोलिक। परंतु समानताओं को समझने का सबसे प्रभावशाली आयाम होता है 'आनुवांशिक'। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक लक्षणों की वंशागति और संतति का अपने जनक से समानता को आनुवांशिकता से आसानी से समझा जा सकता है और यही आनुवांशिकता अनेक रोगों की सूक्ष्म स्तर पर व्याख्या करता है।
जीव विज्ञान की वह शाखा जिसके अंतर्गत प्राणियों की आनुवंशिक भिन्नता, समानता, परिवर्धन, और विकास का अध्ययन किया जाता है। आनुवांशिकी (Genetics) कहलाता है।
आनुवांशिकी का महत्व लैंगिक प्रजनन करने वाले जीवों में ही होता है, क्योंकि इन जीवों द्वारा उत्पन्न होने वाली संतति अपने माता एवं पिता दोनों के गुणों का समावेश होती है इस कारण इनमें कुछ लक्षण अपने पिता के समान कुछ लक्षण अपनी माता के समान और कुछ दोनों के सम्मिश्रित होते हैं जबकि अलैंगिक जनन करने वाला जीव आनुवांशिकी तौर पर शत प्रतिशत अपने जनक जीव के समान होता है, वातावरणीय और पोषणात्मक परिवर्तन के कारण इनकी बाह्य संरचना एवं विकास अपने जनक जीव से भिन्न हो सकती है, परंतु दोनों की आनुवांशिकी में सामान्य स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होता।
आनुवांशिकी विज्ञान की एक बहुत ही बड़ी शाखा है। आनुवांशिकी को अस्तित्व में लाने का श्रेय जार्ज जॉन मेण्डल (Gregor Johann Mendel) को जाता है, इसलिए इन्हे आनुवांशिकी का जनक (Father of Genetics) कहा जाता है।
प्रारंभ में मेण्डल के सिद्धान्तों को महत्व नहीं दिया गया जिसका एक प्रमुख कारण था कि उनकी धारणाएँ बहुत अधिक गणितीय गणनाओं पर आधारित थीं। परंतु बाद में मेण्डल एवं उनके खोज को स्वीकार कर लिया गया।
मेण्डल ने अपने प्रयोग के लिए मीठी मटर (Garden pea) (Pisum sativum) का चयन किया।
इस पौधे के चयन के पीछे निम्न कारण थे-
- मटर के पौधे का जीवन चक्र छोटा होता है जिसके कारण इसकी संततियाँ तुलनात्मक रूप से कम समयान्तराल में उपलब्ध हो जाती थीं।
- मटर के विभिन्न पौधों के बाह्य संरचना में पर्याप्त अंतर होता है, जिससे इनका अध्ययन आसान था।
- इनके फूलों के विशिष्ट आकार के कारण इनका अपनी इच्छानुसार परागण करवाना आसान था।
- मटर के पौधे उनके प्रयोग क्षेत्र में आसानी से उपलब्ध थे।
अपने प्रयोग के लिए मेण्डल ने मटर के पौधों के सभी गुणों को नहीं लिया बल्कि उसने कुल सात गुणों का चयन किया और इन्हीं सात गुणों के आधार पर अपना प्रयोग किया। उन्होंने मटर के बाह्य स्वरूप में आसानी से परिलक्षित होने वाले गुण लिये- जैसे- मटर के पौधे की लंबाई (लंबा या बौना), फूलों का रंग (नीला या सफेद), बीजों का आकार (गोल या झुरींदार), पौधे पर फल लगने का स्थान (अक्ष पर या शीर्ष पर) आदि।
मेण्डल ने एक लंबा पौधा एवं एक छोटा पौधा लिया और इन दोनों में cross कराया। प्राप्त संतति जिसे उसने F
1 genration कहा में उसे सभी पौधे लंबे मिले। उसने फिर प्राप्त संतति का self cross कराया (स्वयं से निषेचन) जिससे प्राप्त संततियों को उसने F
2 नाम दिया। इसमें से एक एक बौना पौधा भी प्राप्त हुआ। इस प्रयोग को निम्न रेखाचित्र द्वारा समझाया जा सकता है।
इस प्रकार मेण्डल को बाह्य लक्षणों के आधार पर तो F1 generation में कोई परिणाम नहीं मिला, पर F2 generation में उसे एक बौना पौधा मिला, जिससे ये स्पष्ट हो गया कि लैंगिक जनन में संतति पौधा अपने दोनों जनक पौधों से गुण ग्रहण करता है।
इस परिणाम के आधार पर मेण्डल ने अपना पहला नियम दिया-
(1) प्रभाविकता का नियम (Law of Dominance)
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प्रभाविकता का नियम कहता है कि यदि किसी लक्षण के युगल जीन एक साथ एक ही जीव में उपस्थित हों तो उनमें से केवल एक ही प्रौढ़ जीव में दृष्टिगोचर होता है। यह लक्षण प्रभावी लक्षण (Dominant Character) कहलाता है तथा दूसरा लक्षण जो स्वयं को व्यक्त नहीं कर पाता उसे अप्रभावी लक्षण (Recessive character) कहते हैं।
(2) पृथक्करण का नियम (Law of Segregation)
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यह नियम कहता है, कि प्रत्येक पादप मे किसी गुण के लिए दो जोड़ी जीन होते हैं, जिनमें से संतति पादप मात्र एक जीन प्राप्त करता है और दूसरा गुणसूत्र यह अपने दूसरे जनक से प्राप्त करता है, इस प्रकार किसी गुण के लिए उसके पास भी एक जोड़ी जीन हो जाते हैं।
इसके पश्चात मेण्डल ने अपने प्रयोग को वृहद् किया और उसने दो गुण एक साथ लिये। उसने पौधे की लंबाई और बीज के आकार का एक साथ अध्ययन किया। इसके लिए उसने एक लंबा पादप लिया जिसमें गोल बीज थे, और एक छोटा पादप लिया जिसमें झुरींदार बीज थे। जब मेण्डल ने इन दोनों पौधों का cross कराया तो F1 generation में उसे मात्र लंबे और गोल बीज वाले पौधे प्राप्त हुए। जब उसने इस F1 generation के पौधे का self cross कराया तो उसे जो संतति पौधे प्राप्त हुए, उनमे से अधिकांश पौधे लंबे और गोल बीज वाले थे, एक पौधा बौना और झुरींदार बीज वाला था, और कुछ पौधे आश्चर्यजनक रूप से लंबे और झुरींदार बीज वाले तथा बौने और गोल बीज वाले थे, जिसने यह साबित कर दिया, कि एक गुण के लिए एक जीन होता है, और इसकी आनुवांशिकी अन्य गुण के जीन से पृथक होती है, इसलिए गुणों का नया संयोग प्राप्त हुआ। इस परिणाम के आधार पर मेण्डल ने अपना दूसरा नियम दिया।
(3) स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम (Law of Independent Assortment)
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यह नियम कहता है कि विभिन्न गुणों के लिए पृथक पृथक जीन होते हैं और प्रत्येक गुण का वहन दूसरे गुण के वहन से पृथक एवं स्वतंत्र होता है।
मेण्डल के इन खोजों के बाद आनुवांशिकी के जगत में बहुत सारे प्रयोग किये गये और कई नये तथ्य और धारणाएँ सामने आती गई। अभी भी आनुवांशिकी के क्षेत्र में नित्य नये आविष्कार हो रहे हैं जो पृथ्वी पर जीवों के विकास एवं विभिन्नताओं को समझने के लिए आवश्यक है।
आनुवांशिकी की इकाई में ही गुणसूत्रों की संरचना, DNA की संरचना नये DNA का निर्माण आदि पढ़ा जाता है। जिनकी चर्चाएँ आगे की जा रही हैं। उसके पूर्व आनुवांशिकी से जुड़े कुछ पारिभाषिक शब्दों को जान लेना ज्यादा लाभप्रद होगा।
लिंग गुणसूत्र (Sex Chromosome)
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मनुष्य की कायिक कोशिकाओं (Somatic Cells) में 46 गुणसूत्र होते हैं। पुरूष वर्ग में 22 जोड़े अलिंगसूत्री गुणसूत्र तथा एक जोड़ा लिंग-सूत्री गुणसूत्र रहते हैं। स्त्रीवर्ग में 22 जोड़े समजातीय गुणसूत्र (Homologous Chromosome) तथा एक जोड़ा X गुणसूत्र होते हैं। अर्धसूत्री विभाजन (Meiosis) के समय, गुणसूत्र के जोडे विसंयोजित होते हैं। हर एक अंडाणु में 22 जोड़े समजातीय गुणसूत्र और एक जोड़ा X गुणसूत्र रहता है, जबकि शुक्राणु में 22 जोड़े समजातीय गुणसूत्र और एक जोड़ा XY लिंग गुणसूत्र रहता है। इस प्रकार शुक्राणु दो प्रकार के होते हैं- X और Y।
संतान का लिंग अंडाणु को निषेचित (Fertilizer) करने वाले शुक्राणु (Sperm) पर निर्भर करता है। X और Y शुक्राणु की संख्या लगभग समान होती है। अंडाणु को कोई भी शुक्राणु समान रूप से निषेचित कर सकता है। अंडाणु X -गुणसूत्र वाले शुक्राणु से निषेचित होने पर, युग्मनज (zygote) में XX गुणसूत्र रहता है इसका विकास स्त्री संतान के रूप में होता है। इसके विपरीत, अंडाणु Y गुणसूत्र से निषेचित होने पर, युग्मनज में XY लिंग गुणसूत्र होता है और इसका विकास पुरूष सन्तान के रूप में होता है।
परिवर्तनशील वातावरण के अनुकूल बनने के लिए प्रत्येक जीव में परिवर्तन होते हैं। प्रत्येक जीव के अंदर वातावरणिक आवश्यकतों के अनुरूप परिवर्तन भिन्न प्रकार का होता है। सजाती जीवों में पाये जाने वाले ये अंतर या असमानताएँ विभिन्नताएँ कहलाती हैं। विभिन्नताएँ कई प्रकार की हो सकती हैं,
जैसे- बाह्य स्वरूप में विभिन्नता (Variation in external morphology), कार्यिकी में विभिन्नता (Variation in physiology), मनोवैज्ञानिक विभिन्नता (Psychological variation) आदि। इनमें से सभी विभिन्नताएँ दीर्घकालिक तथा वंशागत नहीं होती। विकास के प्रक्रम में मात्र उन्हीं विभिन्नताओं को योगदान होता है जो वंशागत होती हैं। वंशागत होने वाली विभिन्नताओं में भी सतत विभिन्नताओं को योगदान विकास के प्रक्रम में अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है। वंशागत होने वाली विभिन्नताएँ कोशिकाओं में उपस्थित विशिष्ट प्रकार के अम्लीय पदार्थों के कारण होती हैं जिन्हें सामान्य बोल-चाल में DNA से संबोधित किया जाता है। ये कोशिकाओं में मुख्यतः नाभिक में उपस्थित क्रोमोसोम में पाये जाते हैं और लक्षणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरित करने का कार्य करते हैं।
डीएनए और आरएनए (Deoxyribo nucleic acid and Ribo-nucleic acid)
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यह एक कार्बनिक अम्ल है, जिसके अणु लम्बी सर्पिल लड़ी के रूप में रहते हैं। इसे न्यूक्लियोटाइड (Nucleotide) कहा जाता है। हर एक न्यूक्लिओटाइड में शर्करा डीऑक्सीराइबोज (Sugar Deoxyribose) चार प्रकार के बेसों (Base) में से एक बेस , 2 पिरिमिडिन (Pyrimidine) और 3 प्यूरीन (Purin) रहते हैं। डीएनए और आरएनए दोनों में से एक प्रकार की शर्कराएँ पाई जाती हैं और शर्करा की यह भिन्नता इन दोनों को एक-दूसरे से अलग करती है। प्रोटीन संश्लेषण (Protein Synthesis) और आनुवंशिक विशेषताओं का संप्रेषण इन्हीं शर्कराओं के कारण होता है।
डीऑक्सीराइबोज न्यूक्लीक अम्ल (डीएनए) (Deoxyribose Nucleic Acid (DNA)
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डीएनए अनेक छोटे-छोटे न्यूक्लिआटाईड अणुओं के रासायनिक संयोग से बना होता है एक विशालकाय अणु है। इसका अणुभार अत्यधिक (कई करोड़) होता है तथा यह जीवों में आनुवंशिक लक्षणों (Hereditary character) का वाहक होता है। हरेक न्यूक्लियोटाइड तीन प्रकार के रसायनों - (1) डी-ऑक्सी-राइबोज (2) फॉस्फेट और (3) नाइट्रोजनयुक्त आधार (Base) का बना होता है। डीऑक्सीराइबोज, 5-कार्बन परमाणुओं वाली शर्करा होतीहै और इसके एक सिरे पर फॉस्फेट का समूह और दूसरे सिरे पर नाइट्रोजन-आधार का समूह जुड़ा रहता है। आधार चार प्रकार के होते हैं- एडीनिन, गुआनीन (Purin group) साइटोसीन तथा थाएमीन (pirimidine group) और हर एक संरचना अलग-अलग होती है। - प्यूरीन सदा पिरिमिडीन से हाइड्रोजन बंध (Hydrogen bond) द्वारा जुड़ा रहता है, जबकि प्यूरीन के साथ यूरीन के या पिरिमिडीन के साथ पिरिमिडीन का बंध बनना संभव नहीं है।
DNA की रचना का आधारभूत नियम है कि एडीनीन हमेशा थाएमीन के साथ और गुआनीन साइटोसीन के साथ बंध बनाता है। यह एक दूसरे को उसी प्रकार पहचाान लेते हैं, जिस प्रकार दो अंतरंग साथी। ये चारों न्यूक्लिओटाइड लम्बी कतार में एक-के-बाद एक विशेष और विभिन्न क्रमों में जुड़े रहते हैं। यही संरचना विभिन्नता जीवों में विविधता के लिए उत्तरदायी ठहराई जाती है।
क्रिक और वाट्सन के अनुसार DNA में न्यूक्लियोटाइड के दो लम्बे फीते एक-दूसरे के चारों ओर चक्करदार सीढ़ी की आकृति में लिपटे रहते हैं। एक फीते का प्यूरीन दूसरे फीते के पिरिमिडीन से इस प्रकार जुड़ा रहता है यदि एक फीते का एडीनन है तो उसके ठीक सामने दूसरे फीते में थाएमीन होगा और गुआनीन के सामने दूसरे फीते में साइटोसीन। जनन और कोशिका-विभाजन के दौरान DNA अणु अपनी प्रतिलिपि बनाता है। वह अपने फीते के चक्करों को एक-एक कर खोलता है और स्वतंत्र हुए फीतों के समानान्तर नए न्यूक्लियोटाईड व्यवस्थित होते चले जाते हैं। एक पुराने अणु से दो नये अणु बनते हैं और सीढ़ीनुमा आकृति में लिपटते जाते हैं।
दो भिन्न जाति के जीवों या पौधों के संकरण (Cross breeding) के फलस्वरूप उत्पन्न जीव या पौधों को संकर कहा जाता है। ऐसे जीव के पौधे, दोनों जनकों से अधिक शक्तिशाली और समुन्नत होते हैं। अतः संकरण के फलस्वरूप इनमें जो विशेष गुण आ जाता है उसे संकर ओज (Hybrid vigour) कहा जाता है। जंतुओं में खच्चर, अलसेशियन कुत्ते तथा पौधों में संकर मक्का आदि इसके उदाहरण हैं।
जीवों के आनुवांशिक पदार्थ में होने वाले सभी प्रकार के परिवर्तन उत्परिवर्तन कहलाते हैं। अधिकांशतः ये परिवर्तन अचानक होते हैं। मुनष्य के जीन में ये उत्परिवर्तन की घटना उसके जीवन के तीन चरणों में संभव है-
- युग्मक अवस्था में, इसे युग्मकी उत्परिवर्तन (Gametic Mutation) कहते हैं,
- युग्मनज अवस्था में, इसे युग्मनजी उत्परिवर्तन (Zygotic Mutation) कहते हैं,
- कायिक उत्परिवर्तन (Somatic Mutation)
उपर्युक्त विकास की अवस्थाओं में जीवों के जीन या गुणसूत्र में अचानक परिवर्तन आ जाता है, परिणामस्वरूप धारक जीव में ऐसी विलक्षणताएँ उत्पन्न होती है, जो उसके माता-पिता में मौजूद नहीं रहती हैं।
चूँकि ये परिवर्तन जीन और गुणसूत्र में होते हैं, इसलिए यह आनुवांशिक परिवर्तन हैं, और धारक जीवों में उत्पन्न होकर इनके लक्षण वंशागत (Inherited) होते हैं। कई बार यह परिवर्तन आगे चलकर यह इतना स्पष्ट हो जाता है कि धारक जीव अपने पूर्वजों से भिन्न प्रतीत होने लगता है। इस प्रकार एक जाति (Species) से दूसरी जाति का उद्भव होता है।
उत्परिवर्तन द्वारा नयी जाति के उत्पन्न होने का एक स्पष्ट उदाहरण है विभिन्न रंगों वाले बीटल कीड़ों का उद्भव जो वातावरणीय आपदाओं से स्वयं को बचाने के लिए समय-समय पर अपना रंग बदलते रहे, और विभिन्न रंगों के बीटल्स की जन्म हो गया जिनके बीच कालांतर में जनन की संभावना समाप्त हो गयी, और इस प्रकार विभिन्न रंगों के बीटल्स की जातियाँ उद्भव हो गई।
डार्विन के विकासवाद के अनुसार जीवों में धीरे-धीरे विभिन्नताएँ उत्पन्न होती हैं, परन्तु उत्परिवर्तनवाद में ये विलक्षणताएँ एकाएक प्रकट होती हैं और नई जातियाँ जन्म लेती हैं।
यह सच है कि उत्परिवर्तन के परिणामस्वरूप नयी जातियों के उद्भव की संभावना रहती है लेकिन यह भी सच है कि अधिकांश उत्परिवर्तन हानिकारक होते हैं और नया जीव जीवित नहीं रह पाता है। बहुत से आनुवांशिक रोग उत्परिवर्तन के कारण ही होते हैं। परन्तु कुछ उत्परिवर्तन लाभप्रद भी होते हैं और इस प्रकार उत्पन्न जीव अपने जीवन में अत्यधिक सफल होता है। उत्परिवर्तन विकास का प्रमुख तत्व माना जाता है क्योंकि उत्परिवर्तन के फलस्वरूप जीवों की नई जातियाँ उत्पन्न होती हैं।
नीचे कुछ आनुवांशिक रोगों की लिस्ट है जिनमें से अधिकांश रोग जीन म्यूटेशन के कारण होते हैं। आनुवांशिक रोगों के साथ एक समस्या यह है कि जीन के स्तर पर असर होने के कारण इनका ईलाज संभव नहीं होता। एक बार जन्म लेने के पश्चात बच्चा आजीवन इस रोग से ग्रसित रहता है। इनमें से कुछ रोग ऐसे हैं जिनके साथ सामान्य जीवन जीना संभव होता है जैसे सीकल सेल एनीमिया, पॉलीसिस्टिक किडनी आदि लेकिन अधिकांश रोग मनुष्य को इस हद तक प्रभावी करते हैं कि रोगी का दूसरे लोगों से स्वतः ही पृथककरण हो जाता है। इनमें से अधिकांश रोगों में रोगी को मानसिक विक्षिप्तता, बंध्यता, लैंगिक असंतुलन, अवरूद्ध मानसिक एवं शारीरिक विकास का सामना करना पड़ता है। कुछ रोगों में तो रोगी की गर्भावस्था में ही मृत्यु हो जाती है।
भारत सरकार द्वारा Abortion Law में महिलाओं में अपना गर्भाधान समाप्त करने की अनुमति दी है यदि गर्भ में पल रहे बच्चे के अंदर किसी गंभीर आनुवांशिक रोग का पता चलता है क्योंकि बच्चे के जन्म के बाद उसके ईलाज की संभावना शून्य होती है, और जन्म लेने के बाद यह बच्चा आजीवन अभिशप्त जीवन जीता है।
कुछ महत्वपूर्ण आनुवांशिक रोग (Genetic Disorders)
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रोग का नाम
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कारण
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आनुवांशिका एवं लक्षण
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वर्णाधता
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x
गुणसूत्र
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वर्धाध
पुरूष एवं सामान्य महिला- बेटी प्रभावित
सामान्य
पुरूष एवं वर्णाध महिला- आधी संतति प्रभावित लाल तथा हरे रंग में विभेदन की
अक्षमता।
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रतौंधी
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X
गुणसूत्र
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रात्रि
में देखने में अक्षम
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सिकल
सेल एनीमिया
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लाल
रक्त कणिकाएँ हॉसियाकार हो जाती हैं जिससे ऑक्सीजन का वहन कर पाने में अक्षम हो
जाती हैं।
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हटिंग्टन
कोरिया
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CAG
का पुनरवार्तन होता है।
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शरीर
की यांत्रिक,
मानसिक क्रियाओं में असंतुलन। पीड़ित व्यक्ति के शरीर के कुछ
हिस्से (गर्दन, हाथ आदि) लगातार हिलते रहते हैं।
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क्लिनफेल्टर
सिण्डोम
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XXY
male सामान्यतः पिता के लिंग गुणसूत्र में विभाजन सही तरीके से न
हो पाने के कारण पुत्र में पिता का X और Y दोनों गुणसूत्र आ जाते हैं।
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नपुंसक
पुरूष,
भुजाएँ सामान्य से लंबी, लैंगिक अंग अल्प
विकसित, स्तन का विकास एवं अन्य द्वितीयक स्त्री लक्षण।
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फेनिलकीटोन्यूरिया
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PAH
में उत्परिवर्तन
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मानसिक
विक्षिप्तता। एमिनो अम्लों के निर्माण में बाधा के कारण शरीर में विष का निर्माण
जो मस्तिष्क एवं शरीर के विकास को बाधित करता है।
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टर्नर
सिण्डोम
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पिता
में लिंग गुणसूत्र के विभाजन अनियमितता के कारण पुत्री में एक ही X गुणसूत्र
रह जाता है।
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सामान्यतः
पुत्री की मृत्यु गर्भावस्था में ही हो जाती है। बचने की बहुत कम संभावना परंतु
यदि पुत्री जीवित पैदा हो भी जाए तो बौना कद, कमजोर एवं लचीला गर्दन,
चौड़ा सीना, एवं बंध्य परंतु इसमें मानसिक
विक्षिप्तता नहीं।
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- जीव विज्ञान की वह शाखा जिसके अंतर्गत प्राणियों की आनुवंशिक भिन्नता, समानता, परिवर्धन, और विकास का अध्ययन किया जाता है। आनुवांशिकी (Genetics) कहलाता है। आनुवांशिक परिवर्तन मात्र लैंगिक प्रजनन करने वाले जीवों में होता है जबकि अलैंगिक जनन करने वाले जीवों की संततियाँ आनुवांशिकी तौर पर शत प्रतिशत अपने जनक के समान होती है।
- मनुष्य की कायिक कोशिकाओं (Somatic Cells) में 46 गुणसूत्र होते हैं।
- पुरूष वर्ग में 22 जोड़े अलिंगसूत्री गुणसूत्र तथा एक जोड़ा लिंग-सूत्री (X & Y) गुणसूत्र रहते हैं।
- स्त्रीवर्ग में 22 जोड़े समजातीय गुणसूत्र (Homologous Chromosome) तथा एक जोड़ा X गुणसूत्र होते हैं।
- संतति का अपने जनक से गुणों मे श्रेष्ठता संकर ओज कहलाता है। यह विशेष योग्यता संतति में उसके दोनों जनकों के गुणसूत्रों (गुणों) के सम्मिलित प्रभाव के कारण आती है। न्यूक्लिक अम्ल फॉस्फेट एवं नाइट्रोजन धारी अणुओं (जो बेस या आधार कहलाते हैं) से जुड़े हुए 5-कार्बन परमाणु की शर्करा की श्रृंखलाओं से बने जटिल यौगिक होते हैं। न्यूक्लिक अम्लों की श्रृंखलाएँ ही जीन कहलाती हैं।
- जीन आनुवंशिकता (Heredity) की मूल इकाई है। ये DNA (Deoxyribo-nuclic-Acid) के बने होते हैं।
- व्यक्ति का शारीरिक और मानसिक विकास तथा आनुवंशिक लक्षणों का संप्रेषण इन्हीं जीन्स पर निर्भर करता है।
- गुणसूत्र मुख्य रूप से न्यूक्लिओ प्रोटीन (Nucleo protein) और न्यूक्लीक अम्ल (Nucleic acid) के बने होते हैं।
- जार्ज जॉन मेण्डल (Gregor Johann Mendel) को आनुवांशिकी का जनक (Father of Genetics) कहा जाता हैं।
- मेण्डल ने अपने प्रयोग के लिए मीठी मटर (Garden pea) (Pisum sativum) का चयन किया।
- मेण्डल के नियमों तथा आनुवांशिकता के सिद्धान्तों की सहायता से मानव जाति की भावी पीढ़ियों को सुधारने तथा उनके स्तर को ऊँचा उठाने के अध्ययन को सुजननिकी कहा जाता है, जिसके जनन का श्रेय फ्रांसिस गाल्टन को जाता है।
मेण्डल ने आनुवांशिकता से संबंधित तीन नियम दिये-
- पृथक्करण का नियम
- प्रभाविकता का नियम
- स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम।